पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३७४

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सहित राजा के मारने ही से वह चन्द्रगप्त को राजसिंहासन पर न बेठ सका. इससे अपने अंतरंग मित्र जीसांड को क्षपणक के वेष में राक्षस के पास छोड़कर भाप राजा लोगों में सहायता लेने की इच्छा से विदेश निकला। अंत में अफगानिस्तान या उसक उत्तर ओर के निवासी पर्वतक नामक लोभ परतंत्र एक राजा से मिलकर और उसको जीतने के पीछे मगध राज्य का आधा भाग लेने के नियम पर उसको पटने पर चदा लाया । पर्वतक के भाई का नाम बैरोधक' और पुन का नाम मलयकेतु था । और भी पाँच म्लेच्छ राजात्रों को पर्वतक अपनी सहायता को खाया । था। इधर राक्षस मंत्री राजा के मरने से रखी होकर उसके भाई सर्वादि को सिंहासन पर बैठाकर राजकाज चाने लगा। चाणक्य ने पर्वतक की सेना लेकर कसमपूर को चारों ओर से घेर लिया । पंद्रह दिन तक घोरतर युद्ध हुआ । राक्षस को सेना और नागरिक लोग लड़ते लड़ते शिथिल हो गए : इसे समय में गत रीति से जीर्षासद्धि के बड़काने में राजा सार्थीसद वैरागी हाला विचक्षण ने उस अभिचार का निर्माल्य किसी प्रकार इन लोगों के अंग में ला दिया था । किंतु वर्तमान जल के विद्वान लोग सोचते हैं कि उस समय निर्माल्य में मंत्र का बल नही था : चाणक्य ने कुछ औषध ऐसे विषभित्रित बनाए ये कि जिनके भोजन या स्पर्श से मनुष्य का सद्य: नाश हो जाय । भट्ट सोमदेव के क्या सरित्सागर के पीठलवक के चौथे तरंग में लिखा है - योगानंद को ऊँची अवस्था में नए प्रकार की कामवासना उत्पन्न हुई । दररुदि ने यह सोचकर कि राश को तो भोगविलास से छुट्टी ही नहीं है. इससे राजकाज का काम शकटार से निकाल जाय तो अच्छी तरह रले । यह विचार कर और राजा से पूछकर शकटार को अंधे कुएं से निकाल कर वररुचि ने मंत्रीपदा पर नियत किया । एक दिन शिकार खेलने में गंगा में राजा ने जानो पांचों उंगली परछाई वररुनि को दिखलाई । वररुचि ने अपनी दो उँगशियों की परछाई कपर से दिमाई, जिससे राजा के हाथ को परछाई लिप गई । राजा ने इन सज्ञाओं का कारण पूछा । वररूनि ने कहा - आपका यह प्रशय था कि पाँच मनुष्य मिलाकर सब कार्य साध सकते हैं। मैंने यह कहा कि जोहो | चित्त एक हो जाय लो पाँन का अशा व्यर्थ है । इस बात पर राजा ने वररूचि की बाही स्तुति की । एक दिन राज ने अपनी रानी को एक ब्राह्मण से खिड़की में से बात करते देखकर उस ब्राहमण को मारने की प्राश की, किंतु अनेक कारणों से वह बच गया । वररुचि ने कहा कि आप के सब महल को यही दशा है । अनेक स्त्री वेषधारी पुरुष महल में रहते है और उन सबों को पकड़ कर दिखाना दिया । इसी से उस ब्राहमण के प्राण बचे । एक दिन योगानंद की रानी के एक चित्र में, जो महल में लगा हुआ था ; वररुचि ने जांच में तिण बना दिया योगानद को गुप्त स्थान में वररुचि के तिल बनाने से उस पर भी संदेह हुआ और शकटार को आज्ञा दी कि तुम पररुचि को आज ही रात को मार डालो । शकटार ने उसको अपने घर में छिपा रखा और किसी और को उसके पदो मार कर उसका मारना प्रकट किया । एक थेर राजा का पुत्र हिरण्यगुप्त जगल में शिकार खेलने गया था, | बहा राज को सिह के भव से एक पेड़ पर चढ़ गया । उस वृक्ष पर एक भालू चा, किन्तु इसने उसको अभय दिया । इन दोनों में यह बात ठारी की आधी रात तक कुंवर सोवे भाग पहरा दे, फिर भाग सोसे कुँवर पहरा । भालू ने अपना मित्र धर्मा निवारा और सिंह के पहलाने पर भी कंवर की रक्षा की । किंतु अपनी पारी में कंधर ने सिंह के बहकाने से भारत को ढकेलना चाहा, जिस पर उसने जाग कर मित्रता के कारण कुँवर को मारा नो नहीं किनु कान में मृत दिया । कुवर जिसमे गूगा और बहिरा हो गया । राजा को बेटे की इस दर्दशा पर बड़ा | सोच हुआ और कहा कि पराचि जीना होता तो इस समय उपाय सोचना । शकटार ने यह अवसर समझकर गा से कहा कि पराचि जीता है । और लाकर राजा के सामने नहा कर दिया । वरचि ने कहा - कचर मित्रद्रोह क्रिया उभी का यह फल है । वह वृत्त कहका उसको उपाय से अच्छा किया । राजा ने पूछा - तुमने यह सत्र वृत्तांत किस तरह जाना ' पनि ने कहा झा - योगवन से जैसे रानी का तिच्न । (लीक यही कहानी राजा भोज उसकी रानी भानुमती उसके पुत्र और वृत्तात किस तरह जाना परराचि ने कालिदास को भी प्रसिद्ध है । यह सब कहकर और उदास होकर वाचि जगात मो चला गया । वररुचि से शकटार ने राजा को मारने को कहा था, किंतु वह पर्मिष्ठ था इससे सम्मत न हन्न । वररुचि के चाने जाने पर शटार ने अवसर पाकर चाणज्य द्वारा कन्या में नंद को मारा १. निती पुस्तकों में यह नाम, विरोधक, रोधक इत्यादि कई नाग में लिया है - तुमने URL भारतेन्दु समग्र ३३०