पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३७६

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के सुनते ही सन्न हो गया और पिता के शयनागार में | और सावधानी से चन्द्रगुप्त और चाणक्य के जाकर देखा तो पर्वतक को बिछौने पर मरा हुआ पाया । अनिष्टसाधन मा प्रवृत्त हुआ । इस भयानक दृश्य के देखते ही मुग्ध मलयकेतु के प्राण चाणक्य ने कुसुमपुर में दूसरे दिन यह प्रसिद्ध कर सूख गए और वह भागुरायण की सलाह से उस रात को | दिया कि पर्वतक और चंद्रगुप्त दोनों समान बंधु थे, छिपकर वहां से भाग कर अपने राज्य की ओर चला इससे राक्षस ने विषकन्या भेजकर पर्वतक को मार गया । इधर चाणक्य के सिखाए भद्रभट इत्यादि डाला और नगर के लोगों के चित्त पर, जिनको कि यह चंद्रगुप्त के कई बड़े-बड़े अधिकारी प्रकट में राजद्रोही सब गुप्त अनुसंघि न मालूम थी, इस बात का निश्चय बनकर मलयकेतु और भागुरायण के साथ ही भाग भी करा दिया। गए। इसके पीछे चाणक्य और राक्षस के परस्पर नीति राक्षस ने मलयकेतु से पर्वतक के मारे जाने का की जो चोटें चलती है, उसी का इस नाटक में वर्णन समाचार सुनकर अत्यंत सोच किया और बड़े आग्रह महाकवि विशाखदत्त का बनाया मुद्राराक्षस स्थान-रंगभूमि रंगशाला में नांदीमंगलपाठ भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अघोर । जयति अपूरब धन कोऊ, लखि नाचत मन मोर ।। 'कौन है सीस पै? 'चंद्रकला', 'कहा याको है नाम यही त्रिपुरारी,' ? 'हाँ यही नाम है, भूल गई किमी जानत ह तुम प्रान-पियारी' ।। 'नारिहि पूछत चंद्रहि नाहि'. 'कहे विजया जदि चाद्र लबारी' । यो गिरजै छलि गंग छिपावत इस हरौ सब पीर तुम्हारी ।। पाद-प्रहार सों जाई पताल न भूमि सबै तनु बोझ के मारे । हाथ नचाहबे सों नभ में इत के उत टूटि परै नहिं तारे। देखन सोपरि जाहिंन लोक न खोलत नैन कृपा उर धारे । यों थल के बिनु कष्ट सों नाचत शर्व हरी दुख सर्व तुम्हारे ।।२ (नांदीपाठ के अनंतर सूत्रधार- बस! बहुत मत बढ़ाओ, सुनो, आज मुझे सभासदों की आज्ञा है कि सामंत वटेश्वरदत्त हेतोः । १. स्वतंत्र मंगलाचरण । २. संस्कृत का मंगलाचरण धन्या केयं स्थिता ते शिरसि शशिकला किन्नु नामैतदस्या : नामैवास्यास्तदेतत् : परिचितमपि ये विस्मृतं कस्य नारी पृच्छमि नेन्दु : कथयतु विजया न प्रमाण यदीन्दु - देव्या निह नोतुमिच्छोरिति सुरसरितं. शाठयामव्याद्विभोर्व : ।।१।। और भी पादस्याविर्भवन्तीमवनतिमवनेरक्षत : स्वैरपातै : संकोचेनैव दोष्णां मुहुरभिनयता सर्वलोकातिगानाम् । दृष्टि लक्ष्ययेषु नोग्रज्वलनकणमुच बनतो दाहभीते रित्याधारानुरोधात त्रिपुरविजयिन : पातु वो दु:खनृत्तम् ।।२।। भारतेन्दु समग्र ३३२