पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३७७

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के पौत्र और महाराज पृथु के पुत्र विशाखदत्त कवि का आज्ञा दीजिए। बनाया मुद्राराक्षस नाटक खेलो । सच है, जो सभा सूत्र. प्यारी, आज्ञा पीछे दी जायगी पहिले काव्य के गुण और दोष को सब भाँत समझती है. यह बता कि आज ब्राह्मणों का न्यौता करके तुमने इस उसके सामने खेलने में मेरा भी चित्त संतुष्ट होता है । कुटुंब के लोगों पर क्यों अनुग्रह किया है ? या आपही उपजै आछे खेत में, मुरखह के धान ! से आज अतिथि लोगों ने कृपा किया है कि ऐसे धूम से सघन होन में धान के, चहिय न गुनी किसान ।। रसोई चढ़ रही है? तो मैं घर से सुघर घरनी को बुलाकर कुछ गाने बजाने नटी-आर्य ! मैंने ब्राह्मणों को न्यौता दिया का ढंग जमाऊँ । (घूमकर) यही मेरा घर है. चलूँ । (आगे बढ़कर) अहा ! आज तो मेरे घर में कोई उत्सव सूत्र.-क्यों ? किस निमित्त से? जान पड़ता है, क्योंकि घरवाले सब अपने अपने काम नटी-चंद्रग्रहण लगनेवाला है। में चूर हो रहे हैं। सूत्र.-कौन कहता है ? पीसत कोऊ सुगंध कोऊ जल भरि कै लावत । नटी-नगर के लोगों के मुंह सुना है । कोऊ बैंठि के रंग रंग की माल बनावत ।। सूत्र.- प्यारी मैंने ज्योति :शास्त्र के चौंसठोर कहँ तिय गन हुँकार सहित अति सवन सोहावत । अंगों में बड़ा परिश्रम किया है । जो हो ; रसोई तो होने होत मुशल को शब्द सुखद जिय को सुनि भावत ।। दो पर आज तो ग्रहन है यह तो किसी ने तुझे धोखा ही जो हो घर से स्त्री को बुलाकर पूछ लेता हूँ (नेपथ्य | दिया है क्योंकि - की ओर) चंद्र बिंब पूरा न भए कर केतु" हठ दाप' । री गुनपारी अब उपाय की जाननवारी । बल सों करिहै ग्रास कह - घर की राखनवारी सब कुछ साधनवारी ।। (नेपथ्य में) मो गृह नीति सरूप काज सब करन सँवारी । हैं ! मेरे जीते चंद्र को कौन बल से ग्रस सकता है? बेगि आउरी नटी विलंब न करु सुनि प्यारी ।। सूत्र.- जेहि बुध रच्छत आप ।। (नटी आती है) नटी आर्य! यह पृथ्वी ही पर से चंद्रमा को नटी-आर्यपुत्र ! मैं आई, अनुग्रहपूर्वक कुछ कौन बचाना चाहता है? अर्थ 'यह आपके सिर पर कौन बड़भागिनी है ?' 'शशिकला' है। क्या इसका यही नाम है ?' 'हाँ, यहीं तो, तुम तो जानती हो फिर क्यों भूल गई ?' 'अजी हम स्त्री को पूछती हैं, चंद्रमा को नहीं पूछती, 'अच्छा चंद्र की बात का विश्वास न हो तो अपनी सखी विजया से पूछ लो ।' योही बात बनाकर गंगा जी को छिपाकर देवी पार्वती को ठगने की इच्छा करने वाले महादेव जी का छल तुम लोगों की रखा करै । दसरा पृथ्वी भुकने के डर से इच्छानुसार पैर का बोझ नहीं दे सकते, ऊपर के लोको के इधर-उधर हो जाने के ीय से हाथ भी यथेच्छ नहीं फेंक सकते और उसके अग्निकण से जल जायगे इसी ध्यान से किसी की ओर भर दृष्टि देख भी नहीं सकते. इससे आधार के संकोच से महादेव जी का कष्ट से नृत्य करना तुम्हारी रक्षा करै । नाटकों में पहले मंगलाचरण करके तब खेल आरंभ करते हैं। इस मंगलाचरण के नाटकशास्त्र में नांदी कहते हैं । किसी का मत है कि नांदी पहले ब्राह्मण पढ़ता है, कोई कहता है सूत्रधार ही और किसी का मत है कि परदे के भीतर से नांदी पढ़ी या गाई जाय । १. संस्कृत मुहाविरे में पति को स्त्रियाँ आर्यपुत्र कहकर पुकारती हैं । २. होरा मुहूर्त जातक ताजक रमल इत्यादि । ३. अर्थात ग्रहण का योग तो कदापि नहीं है। खैर रसोई हो । ४. केतु अर्थात् राक्षस मंत्री । राक्षस मंत्री ब्राह्मण था और केवल नाम उसका राक्षस था किंतु गुण उसमें देवताओं के थे। ५. इस श्लोक का यथार्थ तात्पर्य जानने को काशी संस्कृत विद्यालय के अध्यक्ष जगद्विख्यात पंडितवर

मुद्रा राक्षस ३३३