पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३७९

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नंदवंश जिन सहहिं निज क्रोधानल जारो। चंद्रग्रहण को नाम सुनत निज नृप को मानी ।। इतही आवत चंद्रगुप्त मैं कछु भय जानी ।। तो अब चलो हम लोग चले । (दोनों जाते हैं) प्रथम अंक (स्थन -चाणक्य का घर) (अपनी खुली शिखा को हाथ से फटकारता हुआ चाणक्य आता है) चाणक्य.- बता! कौन है जो मेरे जीते चंद्रगुप्त को बल से ग्रसना चाहता है ? सदा दांत के कंभ को जो बिदार। ललाई नए चद सी जौन धारै ।। जभाई समै काल सो जौन बाढ़े। भलो सिंह को दाँत सो कौन काढे ।। और भी कालसर्पिणी नंद-कुल, क्रोध धूम सी जौन । अबहुँ बाँधन देत नहि. अहो शिखा मम कौन । दहन नंदकुल वन सहज, अति प्रज्वलित प्रताप । को मम क्रोधानल-पतंग भयो चहत अब पाप ।। शारंगरव ! शारंगरव !! (शिष्य आता है) शिष्य.-- गुरुजी ! क्या आज्ञा है ? चाणक्य.-- बेटा ! मैं बैठना चाहता है। शिष्य.- महाराज! इस दालान में बेंत की चटाई पहिले ही से बिछी है. आप बिराजिए । चाणक्य.-- बेटा ! केवल कार्य में तत्परता मुझे व्याकुल करती है. न कि और उपाध्यायों के तुल्य शिष्यजन से दु:शीलता' (बैठकर आप ही आप) क्या सब लोग यह बात जान गए कि मेरे नंदवंश के नाश से क्रद होकर राक्षस पिताबध से दुखी मलयकेतु से मिलकर यवनराज की सहायता लेकर चंद्रगुप्त पर चढ़ाई किया चाहता है । (कुछ सोचकर) क्या हुआ. जब मैं नंदवंश-वध की बड़ी प्रतिज्ञारूपी नदी से पार स करत अधि अँधियार वह, मिलि मिलि करि हरिचंद । द्विजराजहु विकसित करत, धनि धनि यह हरिचंद ।। श्री बाबू साहब को हमारे अनेक आशीर्वाद, महाशय ! चंद्रग्रहण का संभव भूछाया के कारण प्रति पूर्णिमा के अंत में होता है और उस समय के केतु और सूर्य साथ रहते हैं । परंतु केतु और सूर्य का योग यदि नियत संख्या के अर्थात पाँच राशि सोलह अंश से लेकर यह राशि चौदह अंश के वा ग्यारह राशि सोलह अंश से लेकर बारह राशि चौदह अंश के भीतर होता है तब ग्रहण होता है और यदि योग नियत संख्या के बाहर पड़ जाता है तब ग्रहण नहीं होता । इसलिये सूर्य केतु के योग ही के कारण से प्रत्येक पूर्णिमा में ग्रहण नहीं होता। तब केतुश्चन्द्रमस पूर्णमण्डलमिदानीम् । अभिभवितुमिच्छिति बलानक्षत्येनं तु बुधयोगः ।। इस श्लोक का यथार्थ अर्थ यह है कि क्रूरग्रह सूर्य केतु केतु के साथ चंद्रमा के पूर्ण मंडल को न्यून करने की इच्छा करता है परंतु हे बुध ! बल से उस चंद्रमा की रक्षा करता है । यहाँ बुद्ध शब्द पंडित के अर्थ में संबोधन है, ग्रहवाची कदापि नहीं है । बुध शब्द को ग्रहार्थ में ले जाने से जो जो अर्थ होते हैं वे सब बनौआ हैं। इति सं. १९३७. वैशाख शुक्ल ५ ऊंचे हवे गुरु बुध कबी मिलि लरि होत विरूप । करत समागम सबहि सों यह द्विजराज अनुप ।। आपका पं. सुधाकर १. अर्थात कुछ तुम लोगों पर दुष्टता से नहीं, अपने काम की घबराहट से बिछी हुई चटाई नहीं देखी । २. नंदवंश अर्थात नव नंद-एक नंद और उसके आठ पुत्र । ३. पर्वतेश्वर राजा का पुत्र । M मुद्रा राक्षस ३३५ जो है