पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३८०

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उतर चुका, तब यह बात प्रकाश होने ही से क्या मैं मंत्री बनो, क्योंकि- इसको न पूरा कर सकूँगा ? मरख कातर स्वामिभक्त्त कछु काम न आवै । क्योंकि- पंडित हु विन भक्ति काज कछु नाहिं बनावै ।। दिसि सरिस रिपु-रमनी बदन-शसि शोक कारित लाय कै। निज स्वारथ की प्रीति करें ते सब जिमि नारी । लै नीति पवर्नाह सचिव-बिटपन छार डारि जराय के।। बुद्धि भक्ति दोउ होय सबै सेवक सुखकारी ।। बिन पुर निवासी पच्छिगन नृप बसमूल नसाय कै 1 सो मैं भी इस विषय में कुछ सोता नहीं हूं. यथाशक्ति भो शांत मम क्रोधाग्नि यह कछु दहन हित नहिं पाय कै। उसी के मिलाने का यत्न करता रहता हूँ । देखो. और भी पर्वतक को चाणक्य ने मारा यह अपवाद न होगा, जिन जनन ने अति सोच सो क्योंकि सब जानते हैं कि चंद्रगुप्त और पर्वतक मेरे नृप-भय प्रगट धिक नहिं कय्यो । मित्र हैं तो मैं पर्वतक को मारकर चंद्रगुप्त का पक्ष पै मम अनादर को अतिहि निर्बल कर दंगा ऐसी शंका कोई न करेगा. सब यही वह सोच जिय जिनके रह्यो ।। कहेंगे कि राक्षस ने विषकन्या प्रगेग करके चाणक्य के ते लहिं आसन सों गिरायो नंद सहित समाज को । मित्र पर्वतक को मार डाला । पर एकांत में राक्षस ने जिमि शिखर तें बनराज क्रोध गिरावई गजराज कों ।। मलयकेतु के जी में यह निश्चय करा दिया कि तेरे पिता सो यद्यपि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका हूँ, तो भी । को मैंने नहीं मारा, चाणक्य ही ने मारा । इससे चंद्रगुप्त के हेतु शस्त्र अब भी धारण करता हूँ । देखो | मलयकेतु मुझसे बिगड़ रहा है । जो हो, यदि यह मैंने - राक्षस लड़ाई करने को उद्यत होगा तो भी पकड़ा नव नंदन कौं मूल सहित खोद्यो छन भर में ।, जायगा । पर जो हम मलयकेतु को पकड़ेंगे तो लोग चंद्रगुप्त मैं श्री राखी नलिनी जिमि सर में । निश्चय कर लेंगे कि अवश्य चाणक्य ही ने अपने मित्र क्रोध प्रीति सों एक नासि के एक बसायो । इसके पिता को मारा और अब मित्रपुत्र अर्थात् शत्रु मित्र को प्रकट सबन फल लै दिखलायो ।। मलयकेतु को मारना चाहता है । और भी, अनेक देश अथवा जब तक राक्षस नहीं पकड़ा जाता तब तक की भाषा, पहिरावा, चाल व्यवहार जाननेवाले अनेक नंदों के मारने ही से क्या और चंद्रगुप्त को राज्य मिलने वेषधारी बहुत से दूत मैंने इसी हेतु चारों ओर भेज रखे से ही क्या ? (कुछ सोचकर) अहा ! राक्षस की नंदवंश हैं कि वे भेद लेते रहें कि कौन हम लोगों से शत्रुता में कैसी दृढ भक्ति है ! जब तक दिवंश का कोई भी रखता है, कौन मित्र है । और कुसुमपुर निवासी नंद के जीता रहेगा तब तक वह कभी शूद्र का मंत्री बनाना मंत्री और संबंधियों के ठीक ठीक वृत्तांत का अन्वेषण स्वीकार न करेगा. इससे उसके पकड़ने में हम लोगों हो रहा है, वैसे ही भद्रभटादिकों को बड़े बड़े पद देकर को निरुद्यम रहना अच्छा नहीं । यही समझकर तो | चंद्रगुप्त के पास रख दिया है और भक्ति की परीक्षा नंदवंश का सर्वार्थसिद्धि विचारा तपोवन में चला गया लेकर बहुत से अप्रमादी पुरुष भी शत्रु से रक्षा करने को तौ भी हमने मार डाला । देखो, राक्षस मलयकेतु को नियत कर दिए हैं । वैसे ही मेरा सहपाठी मित्र विष्णु मिलाकर हमारे बिगाड़ने में यत्न करता ही जाता है । शर्मा नामक ब्राह्मण जो शुक्रनीति और चौसठों कला से (आकाश में देखकर) वाह राक्षस मंत्री वाह! क्यों न ज्योतिषशास्त्र में बड़ा प्रवीण है, उसे मैंने पहले ही योगी हो ! वाह मंत्रियों में वृहस्पति के समान वाह! तू धन्य बनाकर नंदवध की प्रतिज्ञा के अनंतर ही कुसुमपुर में है, क्योंकि - भेज दिया है, वह वहाँ नंद के मंत्रियों से मित्रता करके, जब लौ रहै सुख राज को तब लौ सबै सेवा करें । विशेष करके राक्षस का अपने पर बड़ा विश्वास बढ़ाकर पुनि राज बिगड़े कौन स्वामी ? तनिक नहिं चित में धरें। | सब काम सिद्ध करेगा. इससे मेरा सब काम बन गया है जे बिपतिहूँ में पालि पूरब प्रीति काज संवारहीं। परंतु चंद्रगुप्त सब राज्य का भार मेरे ही ऊपर रखकर ते धन्य नर तुम सरीख दुरलभ अहै संसय नहीं ।। सुख करता है । सच है, जो अपने बल बिना और इसी से तो हम लोग इतना यत्न करके तुम्हें | अनेक दु :खों के भोगे बिना राज्य मिलता है वही सुख मिलाया चाहते है कि तुम अनुग्रह करके चंद्रगुप्त के | देता है। क्योंकि - १. अग्नि बिना आधार नहीं जलती । २. नंद ने कुरुप होने के कारण चाणक्य को अपने श्राद्ध से निकाल दिया था । भारतेन्दु समग्न ३३६