पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३८२

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मिलेगा। चाणक्य. तूने कैसे जाना कि क्षपणक मेरे अंगूठी गिर पड़ी, और मैं उस राक्षस मंत्री का नामा शत्रुओं का पक्षपाती है? देखकर आपके पास उठा लाया । दूत- क्योंकि उसने मंत्री के कहने से देव चाणक्य.. वाह वाह ! क्यों न हो । अच्छा पर्वतेश्वर पर विषकन्या का प्रयोग किया । जाओ मैंने सब सुन लिया ! तुम्हें इसका फल शीघ्र ही चाणक्य. (आप ही आप) जीवसिद्धि तो हमारा गुप्त दूत है । (प्रकाश) हाँ, और कौन है ? दूत.-जो आज्ञा । द्वत-महाराज! दूसरा राक्षस मंत्री का प्यारा चाणक्य.--शारंगरव! शारंगरव !! सखा शकटदास कायध है। शिष्य- (आकर) आज्ञा, गुरुजी । चाणक्य.-हंसकर आप ही आप) कायथ चाणक्य.-बेटा ! कलम, दावात, कागज तो कोई बड़ी बात नहीं है तो भी क्षुद्र शत्रु की भी उपेक्षा नहीं लाओ। करनी चाहिए, इसी हेतु तो मैंने सिद्धार्थक को उसका शिष्य-जो आज्ञा । (बाहर जाकर ले आता है) मित्र बनाकर उसके पास रखा है (प्रकाश) हाँ, तीसरा | गुरुजी ! ले आया । कौन है? चाणक्य.- (लेकर आप ही आप) क्या दूत- (हँसकर) तीसरा तो राक्षस मंत्री लिखू ? इसी पत्र से राक्षस को जीतना है। का मानों हृदय ही पुष्पपुरवासी चंदनदास नामक वह (प्रतिहारी आती है) वड़ा जौहरी है जिसके घर में मंत्री राक्षस अपना कुटुंब प्रतिहारी- जय हो, महाराज की जय हो ! छोड़ गया है। चाणक्य.- (हर्ष से आप ही आप) वाह वाह ! चाणक्य.-आप ही आप) अरे! यह उसका कैसा सगुन हुआ कि कार्यारंभ ही में जब शब्द सुनाई बड़ा अंतरंग मित्र होगा ; क्योंकि पूरे विश्वास बिना पड़ा । (प्रकाश) कहो, शोणोत्तरा, क्यों आई हो, प्रति.-महाराज ! राजा चंद्रगुप्त ने प्रणाम कहा राक्षस अपना कुटुंब यों न छोड़ जाता । (प्रकाश) भला, तूने यह कैसे जाना कि राक्षस मंत्री वहां अपना कुटुंब | है और पूछा है कि मैं पर्वतेश्वर की क्रिया किया चाहता छोड़ गया है? हूँ इससे आपकी आज्ञा हो तो उनके पहिरे आभरणों को पंडित ब्राह्मणों को दें। दूत-महाराज! इस 'मोहर' की अंगूठी से चाणक्य.- (हर्ष से आप ही आप) वाह आपको विश्वास होगा । (अँगूठी देता है ?) चंद्रगुप्त वाह ; क्यों न हो ; मेरे जी की बात सोचकर चाणक्य.- (अंगूठी लेकर और उसमें राक्षस संदेश कहला भेजा है । (प्रकाश) शोणोत्तरा! चंद्रगुप्त का नाम बांचकर प्रसन्न होकर आप ही आप) अहा ! मैं से कहो कि 'वाह ! बेटा वाह ! क्यों न हो, बहुत अच्छा समझता हूँ कि राक्षस ही मेरे हाथ लगा । (प्रकाश) विचार किया ! तुम व्यवहार में बड़े ही चतुर हो, इससे भला, तुमने यह अंगूठी कैसे पाई ? मुझसे सब वृत्तांत जो सोचा है सो करो, पर पर्वतेश्वर के पहिरे हुए आभरण गुणवान ब्राह्मणों के देने चाहिएं, इससे सुनिए, जब मुझे आपने नगर के लोगों का भेद लेने मेजा तब मैंने यह सोचा कि बिना भेष बदले में ब्राह्मण मैं चुन के भेजूंगा। प्रति.-जो आज्ञा महाराज ? (जाती है) दूसरे के घर में न घुसने पाऊंगा, इससे मैं जोगी का चाणक्य- शारंगरव ! विश्वावसु आदि तीनों भेस करके जमराज का चित्र हाथ में लिए फिरता- भाइयों से कहो कि जाकर चंद्रगुप्त से आभरण लेकर फिरता चंदनदास जौहरी के घर में चला गया और वहाँ चित्र फैलाकर गीत गाने लगा। मुझसे मिलें। शिष्य-जो आज्ञा । (जाता है) चाणक्य.-हाँ तब? चाणक्य- (आप ही आप) पीछे तो यह लिखें दूत.-तब महाराज ! कौतुक देखने को एक पांच बरस का बड़ा सुंदर बालक एक परदे के आड़ से पर पहिले क्या लिखें । (सोचकर) अहा ! दूतों के मुख स्त्री की उँगली पतली होती है, इससे द्वार पर ही यह से ज्ञात हुआ है कि उस म्लेच्छराज-सेना में प्रधान पांच राजा परम भक्ति से राक्षस की सेवा करते हैं। बड़ा कलकल हुआ कि "लड़का कहां गया ।" इतने में एक स्त्री ने द्वार के बाहर मुख निकालकर देखा और प्रथम चित्रवर्मा कुलूत को राजा भारी लड़के को झट पकड़ ले गई, पर पुरुष की ऊँगली से | मलयदेशपति सिंहनाद दजो स्त्री की उँगली पतली होती है, इससे द्वार पर ही य तीजो पुसकरनयन अहै कश्मीर देश को ABAR भारतेन्दु समग्र ३३८ तो कहो । बलधारी ।।