पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३८३

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HOS सिधुसेन पुनि सिंधु नृपति अति उग्र भेष को ।। जायँ तब यह काम करना । (कान में समाचार कहता 'मेघाक्ष पांचवों प्रबल अति, बहु हय-जुत पारस-नृपति । सिद्धा.- जो आज्ञा महाराज । अब चित्रगुप्त इन नाम को चाणक्य-शारंगरव! शारंगरव !! मेटहिं हम जब लिहिं हति ।। शिष्य-(आकर) आज्ञा गुरुजी ! (कुछ सोचकर) अथवा न लिखू, अभी सब बात यों चाणक्य-कालपाशिक और दंडपाशिक से ही रहे । (प्रकाश) शारंगरव ! शारंगरव ! यह कह दो कि चंद्रगुप्त आज्ञा करता है कि जीवसिद्ध शिष्य- (आकर) आज्ञा गुरुजी ! क्षपणक ने राक्षस के कहने से विषकन्या का प्रयोग चाणक्य-बेटा! वैदिक लोग कितना भी अच्छा करके पर्वतेश्वर को मार डाला, यही दोष प्रसिद्ध करके लिखें तो भी उनके अक्षर अच्छे नहीं होते ; इससे अपमानपूर्वक उसको नगर से निकाल दें। सिद्धार्थक से कहो (कान में कहकर) कि वह शकटदास शिष्य-जो आज्ञा (घूमता है) के पास जाकर यह सब बात यों लिखवा कर और चाणक्य- बेटा! ठहर - सुन, और वह 'किसी का लिखा कुछ कोई आप ही बाचे' यह सरनामे जो शकटदास कायस्थ है वह राक्षस के कहने से नित्य पर नाम बिना लिखवाकर हमारे पास आवे और हम लोगों की बुराई करता है । यही दोष प्रगट करके शकटदास से यह न कहे कि चाणक्य ने लिखवाया है। उसको सूली दे दें और उसके कुटुंब को कारागार में शिष्य-जो आज्ञा । (जाता है) भेज दें। चाणक्य- (आप ही आप) अहा! मलयकेतु शिष्य-जो आज्ञा महाराज । (जाता है) को तो जीत लिया। चाणक्य- (चिता करके आप ही आप) हा ! (चिट्ठी लेकर सिदार्थक आता है) क्या किसी भांति यह दुरात्मा राक्षस पकड़ा जायगा । सिखा.-जय हो महाराज की जय हो. सिद्धा.-महाराज! लिया । महाराज! यहा शकटदास के हाथ का लेख है। चाणक्य-(हर्ष से आप ही आप) अहा ! क्या चाणक्य- (लेकर देखता है) वाह कैसे सुंदर राक्षस को ले लिया ? (प्रकाश) कहो, क्या पाया ? अक्षर हैं ! (पढ़कर) बेटा इस पर यह मोहर कर दो । सिद्धा.-महाराज! आपने जो संदेश कहा, सिखा.-जो आज्ञा । (मोहर करके) महाराज, वह मैंने भली भांति समझ लिया, अब काम पूरा करने इस पर मोहर हो गई, अब और कहिए क्या आज्ञा है । जाता हूँ। चाणक्य-बेटा ! हम तुम्हें एक अपने निज चाणक्य-(मोहर और पत्र देकर) सिदार्थक ! काम में भेजा चाहते हैं। जा तेरा काम सिद्ध हो । सिद्धा.-(हर्ष से) महाराज, यह तो आपकी सिद्धा.-जो आज्ञा । (प्रणाम करके जाता है) कृपा है । कहिए, यह दास आपके कौन काम आ सकता शिष्य-(आकर) गुरु जी, कालपाशिक, दंडपाशिक आपसे निवेदन करते हैं कि महाराज चाणक्य-सुनो पहिले जहाँ सूली दी जाती है चंद्रगुप्त की आज्ञा पूर्ण करने जाते हैं। वहाँ जाकर फांसी देनेवालों को दाहिनी आँख दबाकर चाणक्य-अच्छा बेटा ! मैं चंदनदास जौहरी समझा देना २ और जब वे तेरी बात समझकर डर से को देखा चाहता हूँ। इधर उधर भाग जाय तब तुम शकटदास को लेकर शिष्य-जो आज्ञा । (बाहर जाकर चंदनदास राक्षस मंत्री के पास चले जाना। वह अपने मित्र के प्राण को लेकर आता है) इधर आइए सेठ जी! बचाने से तुम पर बड़ा प्रसन्न होगा और तुम्हें चंदन.- (आप ही आप) यह चाणक्य ऐसा पारितोषिक देगा, तुम उसको लेकर कुछ दिनों तक निर्दय है कि यह जो एकाएक किसी को बुलावे तो लोग राक्षस ही के पास रहना और जब और भी लोग पहुंच बिना अपराध भी इससे डरते हैं, फिर कहाँ मैं इसका १. अर्थात् अब जब हम इनका नाम लिखते हैं तो निश्चय ये सब मरेंगे । इससे अब चित्रगुप्त अपने खाते से इनका नाम काट दें, न ये जीते रहेंगे न चित्रगुप्त को लेखा रखना पड़ेगा । २ चांडालों को पहले से समझा था कि जो आदमी दाहिनी आँख दबावे उसको हमारा मनुष्य समझ कर तुम लोग झटपट हठ जाना । wut मुद्रा गक्षस ३३९