पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 चंदन.- नित्य का अपराधी, इसी से मैने धनसेनादिक तीन चंदन.-महाराज वह कौन अभागा है जिसे महाजनों से कह दिया कि दुष्ट चाणक्य जो मेरा घर लूट आप राजविरोधी समझते हैं? ले तो आश्चर्य नहीं. इससे स्वामी राक्षस का कुटुंब और चाणक्य-उनमें पहिले तो तुम्ही हो । कहीं ले जाओ, मेरी जो गति होनी है वह हो । चंदन.- (कान पर हाथ रखकर) राम ! राम ! शिष्य- इधर आइए साह जी ! राम! भला तिनके से और अग्नि से कैसा विरोध ? चंदन.- आया (दोनों घूमते हैं) चाणक्य-विरोध यही है कि तुमने राजा के चाणक्य (देखकर) आइए साहजी ! कहिए, शत्रु राक्षस मंत्री का कुटुंब अब तक घर में रख छोड़ा अच्छी तो हैं ? बैठिए यह आसन है । चंदन.-(प्रणाम करके) महाराज! आप नहीं चंदन. .- महाराज ! यह किसी दुष्ट ने आपसे जानते कि अनुचित सत्कार अनादर से भी विशेष दु:ख झूठ कह दिया है। चाणक्य-सेठजी! डरो मत । राजा के भय का कारण होता है, इससे मैं पृथ्वी पर बैठेंगा । चाणक्य-वाह ! आप ऐसा न कहिए. से पुराने राजा के सेवक लोग अपने मित्रों के पास बिना आपको तो हम लोगों के साथ यह व्यवहार उचित ही चाहे भी कुटुंब छोड़कर भाग जाते हैं इससे इसके है; इससे आप आसन ही पर बैठिए । छिपाने ही में दोष होगा । (आप ही आप) कोई बात तो इस दुष्ट चंदन.-महाराज! ठीक है । पहिले मेरे घर ने जानी । (प्रकाश) जो आज्ञा (बैठता है) पर राक्षस मंत्री का कुटुंब था । चाणक्य- पहिले तो कहा कि किसी ने झूठ चाणक्य-कहिए साहजी ! चंदनदास जी! कहा है । अब कहते हो था. यह गबड़े की बात कैसी? आपको व्यापार में लाम तो होता है न ? चंदन.- महाराज, क्यों नहीं, आपकी कृपा से चंदन.-- महाराज! इतना ही मुझसे बातों में फेर पड गया । सब बनज-व्यापार अच्छी भाँति चलता है। चाणक्य- सुनो, चंद्रगुप्त के राज्य में छल चाणक्य-कहिए साहजी ! पुराने राजाओं के का विचार नहीं होता. इससे राक्षस का कुटुंब दो. तो गुण, चंद्रगुप्त के दोषों को देखकर, कभी लोगों को तुम सच्चे हो जाओगे। स्मरण आते हैं? चंदन.. चंदन.- (कान पर हाथ रखकर) राम ! राम !

- महाराज ! मैं कहता हूँ न, पहिले

शरद ऋतु के पूर्ण चंद्रमा की भांति शोभित चंद्रगुप्त को राक्षस का कुटुंब था। चाणक्य-तो अब कहाँ गया ? देखकर कौन नहीं प्रसन्न होता ? चंदन.-न जाने कहाँ गया । चाणक्य-जो प्रजा ऐसी प्रसन्न है तो राजा भी चाणक्य (हँसकर) सुनो सेठ जी! तुम क्या प्रजा से कुछ अपना भला चाहते हैं । नहीं जानते कि सांप तो सिर पर बूटी पहाड़ पर । और चंदन. -महाराज ! जो आज्ञा । मुझसे कौन जैसा चाणक्य ने नंद को और कितनी वस्तु चाहते हैं ? (इतना कह कर लाज से चाणक्य- सुनिए साह जी ! यह नंद का राज चुप रह जाता है । नहीं है, चंद्रगुप्त का राज्य है, धन से प्रसन्न होने वाला तो वह लालची नद ही था, चंद्रगुप्त तो तुम्हारे ही भले | प्रिया दूर धन गरजहीं, अहो दु:ख अति घोर । से प्रसन्न होता है। औषधि दर हिमाद्रि पै. सिर पै सर्प कठोर ।। चंदन.-- (हर्ष से) महाराज, यह तो आपकी चाणक्य-चंद्रगुप्त को अब राक्षस मंत्री राज पर से उठा देगा यह आशा छोड़ो, क्योंकि देखो चाणक्य- पर यह तो मुझसे पूछिए कि वह नृप नंद जीवत नीतिबल सों मति रही जिनकी भली । मला किस प्रकार से होगा। ते 'वक्रनासादिक' सचिव नहिं थिर सके करि, नसि चंदन..

-कृपा करके कहिए।

चाणक्य-सौ बात की एक बात यह है कि सो श्री सिमिट अब आय लिपटी चंद्रगुप्त नरेस सों।। राजा से विरुद्ध कामों को छोड़ो। तेहि दर को करि सकै ? चादनि छुटत कहुँ राकेस सो ? १. यहाँ तुच्छता प्रकट करने के लिए 'राज्य' का अपभंश 'राज' लिखा गया है। भारतेन्दु समग्र ३४० चंदन.- (आप ही आप) कृपा है। चली ।।