पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३८७

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जो तू लपटी शूद्र सो नीचगामिनी होय ? तुम्हारे गुणों के आगे मैं स्वामी के गुण भूल गया ।' अथवा पर - बारबधू जन को अहै सहहिं चपल सुभाव । इन दृष्ट बैरिन सों दखी निज अंग नहिं सवारिहौं । तजि कुलीन गुनियन कहिं ओछे जन सो चाव ।। भूषन बसन सिगार तब लौ हौ न तन कछु धारिहौ ।। तो हम भी अब तेरा आधार ही नाश किए देते हैं । जब लौ न सब रिपु नासि, पार्टालपुत्र फेर बसाइहौं।। (कुछ सोचकर) हम मित्रवर चंदनदास के घर अपना | हे कँवर ! तुमको राज दै. सिर अचल छत्र फिराइहौ।। कुटुंब छोड़कर चले आए सो अच्छा ही किया । क्योंकि कंचुकी-अमात्य ! आप जो न करो सो थोड़ा एक तो अभी क़समपुर को चाणक्य घेरा नहीं चाहता, है. यह बात कौन कठिन है पर कमार की यह पहिली दसर यहां के निवासी महाराजनंद में अनुरक्त है, बिनती तो मानने ही के योग्य है। इससे हमारे सब उद्योगों में सहायक होते हैं । वहाँ भी राक्षस मुझे तो जैसी कुमार की आज्ञा विषादिक से चंद्रगुप्त के नाश करने को और सब प्रकार | माननीय है वैसी ही तुम्हारी भी, इससे मुझे कुमार की से शत्रु का दाँव घात व्यर्थ करने को बहुत सा धन देकर | आज्ञा मानने में कोई विचार नहीं है। शकटदास को छोड़ ही दिया है । प्रतिक्षण शत्रुओं का कंचुकी- (आभूषण पहिराता) कल्याण हो भेद लेने को और उनका उद्योग नाश करने को भी महाराज ! मेरा काम पूरा हुआ । जीवसिद्धि इत्यादि सुहृद नियुक्त ही हैं । राक्षस-मैं प्रणाम करता हूँ। सो अब तो-- कंचुकी मुझको जो आज्ञा हुई थी सो मैंने पूरी विषवृक्ष-अहिस्त-सिंहपोत समान जा दुखरास कों। | की । (जाता है) नृपनंद निज सुत जानि पाल्यौ सकुल निज असु-नास को। राक्षस-प्रियंबदक ! देख तो मेरे मिलने को ता चंद्रगुप्ताह बुद्धि सर मम तुरत मारि गिराइ है । द्वार पर खड़ा है। जो दृष्ट देव न कवच बनिकै असह आड़े आइहै ।। प्रियं.-जो आज्ञा । (आगे बढ़कर सँपेरे के पास (कंचुकी आता है) आकर) आप कौन हैं? कंचुकी (आप ही आप) सँपेरा-मैं जीविष नामक सँपेरा है और नृपनंद काम समान चानक-नीति-जर जरजर भयो । राक्षस मंत्री के सामने मैं साँप खेलना चाहता हूँ । मेरी पनि धर्म सम नृप चंद्र तिन तन पुरह क्रम सों बढ़ि यही जीविका है। प्रियं.-तो ठहरो. हम अमात्य से निवेदन कर अवकास लहि तेहि लोभ राक्षस जपि जीतन जाइहै । ले । (राक्षस के पास जाकर) महाराज! एक सपेरा है. पै सिथिल बल भे नाहिं कोऊ बिधिहु सों जय पाइहै।। वह आपको अपना करतब दिखलाया चाहता है। (देखकर) मंत्री राक्षस है । (आगे बढ़कर) मंत्री ! राक्षस- (बाई आँख का फड़कना दिखाकर आप का कल्याण हो । आप ही आप) है. आज पहले ही सांप दिखाई पड़े। राक्षस जाजलक ! प्रणाम करता हूँ । अरे प्रियंबदक ! (प्रकाश) प्रियंबदक ! मेरा साँप देखने को जी नहीं आसन ला। चाहता तो इसे कुछ देकर विदा कर । प्रियंबदक- (आसन लाकर) यह आसन है. प्रियं.-जो आज्ञा । (सँपेरे के पास जाकर) लो. आप बैठे। मंत्री तुम्हारा कौतुक बिना देखे ही तुम्हें यह देते हैं. कंचुकी- (बैठकर) मंत्री, कुमार मलयकेतु ने जाओ। आपको यह कहा है कि 'आपने बहुत दिनों से अपने सँपेरा-मेरी ओर से यह बिनतो करो कि मैं शरीर का सब श्रृंगार छोड़ दिया है इससे मुझे बड़ा दुख केवल सँपेरा ही नहीं है किंतु भाषा का कवि भी हूँ. होता है । यद्यपि आपको अपने स्वामी के गुण नहीं इससे जो मंत्री जी मेरी कविता मेरे मुख से न सुना चाहें भूलते और उनके वियोग के दु:ख में यह सब कुछ नहीं तो यह पत्र ही दे दो पढ़ लें! (एक पत्र देता है) अच्छा लगता तथापि मेरे कहने से आप इनको प्रियं.- (पत्र लेकर राक्षस के पास आकर) पहिरें । (आभरण दिखाता है) मंत्री ! आभरण कुमार महाराष! वह सपेरा कहता है कि मैं केवल सपेरा ही ने अपने अंग से उतार कर भेजे हैं. आप इन्हें धारण नहीं हूँ, भाषा का कवि भी हूँ । इससे जो मंत्री जी मेरी करें। कविता मेरे सुख से सुनना न चाहें तो यह पत्र ही दे दो। राक्षस-जाजलक ! कुमार से कह दो कि 'पढ़ ले । (पत्र देता है ।) लियो ।। मुद्रा राक्षस ३४३