पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३८८

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राक्षस-(पत्र पढ़ता है) बलरूपी समुद्र से कुसुमपुर चारों ओर सो घिर गया सकल कुसुम रस पान करि मधुप रसिक सिरताज । जो मधु त्यागत ताहि लै होत सबै जग काज ।। राक्षस- (कृपाण खींचकर क्रोध से) हैं ! मेरे (आप ही आप) अरे!! - 'मैं कुसुमपुर का जीते कौन कुसुमपुर घेर सकता है? प्रवीरक ! वृत्तांत जाननेवाला आप का दूत है' इस दोहे से यह प्रवीरक! ध्वनि निकलती है । अह ! मैं तो कामों से ऐसा घबड़ा चढ़ी लै सरें, धाइ घेरौ अटा को। रहा है कि अपने भेजे भेदिया लोगों को भी भूल गया । धरौ द्वार पै कुंजरे ज्यों घटा को । अब स्मरण आया । यह तो सँपेरा बना हुआ विराधगुप्त कहाँ जोधनै मृत्यु को जीति धावै । कुसुमपुर से आया है। (प्रकाश) प्रियंबदक ! इसको चलें संग भै छाडि, के कीर्ति पावै ।। बुलाओ यह सुर्काव है, मैं भी इसकी कविता सुना विराध-महाराज ! इतनी शीघ्रता न कीजिए, चाहता हैं। मेरी बात सुन लीजिए। प्रियं.- जो आज्ञा । (संपेरे के पास जाकर) राक्षस-कौन बात सुनूं ? अब मैने जान लिया चलिए, मंत्री जी आपको बुलाते हैं। कि इसी का समय आ गया है । (शस्त्र छोड़कर आँखों सँपेरा-(मंत्री के सामने जाकर और देखकर में आँसू भरकर) हा ! देव नंद ! राक्षस को तुम्हारी कृपा आपही आप) अरे यही मंत्री राक्षस है ! अहा ! कैसे भूलेगी? लै बाम वाहु-लताहि राखत कंठ सौ खसि खसि परै । हैं जहं अँड खड़े गज मेघ के अज्ञा करौं तहां राक्षस! जायके । तिमि धरे दच्छिन बाहु कोह्र गोद में बिच लै गिरै ।। जा बुद्धि के डर होइ सकित नृप हृदय कुच नहिं धरै । त्यों ये तुरंग अनेकन है. तिनहूँ के प्रबंधहि राखौ बनायकै ।। अजहूँ न लक्ष्मी चंद्रगुप्तहि गाढ़ आलिंगन करै ।। (प्रकाश) मंत्री की जय हो । पैदल ये सब तेरे भरोसे है, राक्षस-(देखकर) अरे विराध - (संकोच काज करौ तिनको चित लायकै । से बात उड़ाकर) प्रियंबदक ! मैं जब तक सों से यों कहि एक हमैं तुम मानत हे, निज काज हजार बनाय कै।। अपना जी बहलाता हूँ तब तक सबको लेकर तू बाहर ठहर! हाँ फिर? प्रियं. जो आज्ञा । विराष.- तब चारों ओर से कुसुमनगर घेर (बाहर जाता है) लिया और नगरवासी बिचारे भीतर ही भीतर घिरे घिरे राक्षस-मित्र विराधगुप्त ! इस आसन पर घबड़ा गए । उनका उदासी देखकर सुरंग के मार्ग से सर्वार्थसिदि तपोवन में चला गया और स्वामी के विरह विराध गुप्त-जो आज्ञा । (बैठता है) । से आपके सब लोग शिथिल हो गए । तब अपने जयकी राक्षस- (खेद-सहित निहारकर हा! महाराज डौंड़ी सब नगर में शत्रु लोगों ने फिरवा दी, और नंद के आश्रित लोगों की यह अवस्था ! (रोता है) आपके भेजे हुए लोग सुरंग में इधर उधर छिप गए, विराध- आप कुछ सोच न करें, भगवान की और जिस विषकन्या को आपने चंद्रगुप्त के नाश-हेतु कृपा से शीघ्र ही वही अवस्था होगी । भेजा था उससे तपस्वी पर्वतेश्वर मारा गया । राक्षस-मित्र विराधगुप्त ! कहो, कुसुमपुर राक्षस-अहा मित्र! देखो, कैसा आश्चर्य का वृत्तांत कहो। बिराध-महाराज ! कुसुमपुर का वृत्तांत बहुत जो विषमयी नृप-चंद्र बध-हित नारि राखी ताय के । लंबा-चौड़ा है, जिससे जहाँ से आज्ञा हो वहाँ से कहूँ । तासों हत्यो पर्वत उलटि चाणक्य बुद्धि उपाय के ।। राक्षस-मित्र ! चंद्रगुप्त के नगर-प्रवेश के | जिमि करन शक्त्ति अमोघ अर्जुन-हेतु धरी छिपाय कै । पीछे मेरे भेजे हुए विष देनेवाले लोगों ने क्या क्या पै कृष्ण के मत सो घटोत्कच पै परी घहराय के ।। किया यह सुना चाहता हूँ। बिराध.-महाराज! समय की सब उलटी विराध- सुनिए - शक, यवन, किरात. | गति है -क्या कीजिएगा ? कांबोज, पारस, वाल्हीकादिक देश के चाणक्य के मित्र राक्षस-हाँ । तब क्या हुआ? राजों की सहायता से, चंद्रगुप्त और पर्वतेश्वर के विराध.-तब पिता का वध सुनकर कुमार भारतेन्दु समग्र ३४४ बैठो। हुआ- Urte