पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

HD मलयकेतु नगर से निकलकर चले गए और पर्वतेश्वर में उसका प्रवेश कराया जब वौरोधक मंदिर में घुसने के भाई वैरोधक पर उन लोगों ने अपना विश्वास जमा घुसने लगा तब आपका भेजा दारुवर्म बढ़ई उसको लिया । तब उस दुष्ट चाणक्य ने चंद्रगुप्त का प्रवेश चंद्रगुप्त समझकर उसके ऊपर गिराने को अपनी कल मुहूर्त प्रसिद्ध करके नगर के सब बढ़ई और लोहारों को की बनी तोरन लेकर सावधान हो बैठा । इसके पीछे बुलाकर एकत्र किया और उनसे कहा कि महाराज के चंद्रगुप्त के अनुयायी सब बाहर खड़े रह गये और जिस नंद भवन में गृहप्रवेश का मुहूर्त ज्योतिषियों ने आज ही बर्बर को आपने चंद्रगुप्त के मारने के हेतु भेजा था वह आधी रात का दिया है, इससे बाहर से भीतर तक सब भी अपनी सोने की छड़ी की गुप्ती जिसमें एक छोटी द्वारों को जांच लो । तब उससे बढ़ई लोहारों ने कहा कृपाण थी लेकर वहाँ खड़ा हो गया कि महाराज ! चंद्रगुप्त का गृहप्रवेश जानकर दारुवम ने राक्षस-दोनों ने बेठिकाने काम किया । हाँ प्रवेश द्वार तो पहले ही सोने की तोरनों से शोभित कर फिर? रखा है, भीतर से द्वारों को हम लोग ठीक करते हैं।' विराध.- तब उस हथिनी को मारकर बढ़ाया यह सुनकर चाणक्य ने कहा कि बिना कहे ही दारुवर्म | और उसके दौड़ चलने से कल की तोरण का लक्ष्य, जो ने बड़ा काम किया इससे उसको चतुराई का चंद्रगुप्त के धोखे वैरोधक पर किया गया था, चूक गया पारितोषिक शीघ्र ही मिलेगा। और वहाँ बर्बर जो चंद्रगुप्त का आसरा देखता था, वह राक्षस- (आश्चर्य से) चाणक्य प्रसन्न हो यह बेचारा उसी कल की तोरन से मारा गया । जब कैसी बात है ? इससे दारुवर्म का यत्न या तो उलटा दारुवर्मा ने देखा कि लक्ष्य तो चूक गए, अब मारे होगा या निष्फल होगा, क्योंकि इसने बुद्धिमोह से या बायहींगे तब उसने उस कल के लोहे की कील से उस राजभक्ति से बिना समय ही चाणक्य के जी में अनेक ऊँचे तोरन के स्थान ही पर से चंद्रगुप्त से घोखे संदेह और विकल्प उत्पन्न कराए । हां फिर ? तपस्वी वैरोधक को हथिनी ही पर मार डाला । विराष.-फिर उस दुष्ट चाणक्य ने बुलाकर राक्षस- हाय ! दोनों बातें कैसे दुख की हुई कि सबको सहेज दिया कि आज आधी रात को प्रवेश होगा, चंद्रगुप्त तो काल से बच गया और दोनों बिचार बर्बर और उसी समय पर्वतेश्वर का माई वैरोधक और और वैरोधक मारे गए (आप ही आप) दैव ने इन दोनों चंद्रगुप्त को एक आसन पर बिठाकर पृथ्वी का आधा को नहीं मारा हम लोगों को मारा !! (प्रकाश) और यह आधा भाग कर दिया। दारुवर्म बढ़ई क्या हुआ ? राक्षस-क्या पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक को विराध.- उसको वैरोधक के साथ के मनुष्यों आधा राज मिला, यह पहले ही उसने सुना दिया ? को मार डाला। विराध. - हां, तो इससे क्या हुआ ? राक्षस- हाय ! बड़ा दु:ख हुआ ! हाय प्यारे राक्षस (आप ही आप) निश्चय यह ब्राह्मण दारुवर्म का हम लोगों से वियोग हो गया । अच्छा! बड़ा धूर्त है, कि उसने उस सीधे तपस्वी से इधर उधर उस वैद्य अभयदत ने क्या किया ? की चार बात बनाकर पर्वतेश्वर के मानने के अपयश विराध.- महाराज ! सब कुछ किया । निवारण के हेतु यह उपाय सोचा । (प्रकाश) अच्छा राक्षस- (हर्ष से) क्या चंद्रगुप्त मारा गया ? कहो - तब? विराध.-देव ने न मारने दिया । विराध.-तब यह तो उसने पहले ही प्रकाश राक्षस- (शोक से) तो क्या फूलकर कहते हो कर दिया था कि आज रात को गृह प्रवेश होगा, फिर कि सब कुछ किया। उसने वैरोधक को अभिषेक कराया और बड़े बड़े विराध..- उसने औषबि में विष मिलाकर बहुमूल्य स्वच्छ मोतियों का उसके कवच पहिराया चंद्रगुप्त को दिया, पर चाणक्य ने उसको देख लिया और अनेक रत्नों से जड़ा सुंदर मुकुट उसके सिर पर और सोने के बरसतन में रखकर उसके रंग पलटा रखा और गले में अनेक सुगंध के फूलों की माला जानकर चंद्रगुप्त से कह दिया कि इस औषधि में विष पहिराई, जिससे वह एक ऐसे बड़े राजा की भाति हो | मिला है, इसको न पीना । गया कि जन लोगों ने उसे सर्वदा देखा है वे भी न राक्षस-अरे वह ब्राह्मण बड़ा ही पहिचान सकें । फिर उस दुष्ट चाणक्य की आज्ञा से | हाँ, तो वह वैद्य क्या हुआ ? लोगों ने चंद्रगुप्त की चंद्रलेखा नाम की हथिनी पर विराध.- उस वैद्य को वही औषधि पिलाकर बिठाकर बहुत से मनुष्य साथ करके बड़ी शीघ्रता से नंद मार डाला। 04 मुद्रा राक्षम ३४५ दुष्ट