पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३९०

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क्या ठहराया। राक्षस- (शोक से) हाय हाय ! बड़ा गुणी मारा का सेसहि नहिं भार पैर धरती देर न डारि । गया । भत्ला शयनघर के प्रबंध करनेवाले प्रमोदक ने कहा दिवसमनि नहिं थकत पै नहि रुकत विचारि ।। क्या किया। सज्जन ताको हित करत जेहि किय अंगीकार । विराष.- उसने सब चौका लगाया । यहै नेम सुकृत को निज विय करहु विचार ।। राक्षस-(घबड़ा कर) क्यों ? राक्षस-मित्र! यह क्या तू नहीं जानता कि मैं विराष.- उस मूर्ख को जो आपके यहाँ से व्यय प्रारब्ध के भरोसे नहीं हूँ? हाँ, फिर । को धन मिला सो उससे उसने अपना बड़ा ठाटबाट विराध.- तब से दुष्ट चाणक्य चंद्रगुप्त की फैलाया । यह देखते ही चाणक्य चौकन्ना हो गया और रक्षा में चौकन्ना रहता है और इधर उधर के अनेक उससे अनेक प्रश्न किए, जब उसने उन प्रश्नों के उत्तर उपाय सोचा करता है और पहिचान-पहिचान के नंद के अंडबंड दिए तो उसपर पूरा संदेह करके दुष्ट चाणक्य मित्रों को पकड़ता है। ने उसको बुरी चाल से मार डाला ! राक्षस- (घबड़ाकर) हाँ ! कहो तो, मित्र ! राक्षस-हा! क्या देव ने यहाँ भी उलटा हमी उसने किसे किसे पकड़ा है? लोगों को मारा! मला वह चंद्रगुप्त के सोते समय विराथ.- सबसे पहले तो जीवसिद्धि क्षपणक मारने के हेतु जो राजभवन में वीभत्सकादि वीर सुरंग को निरादर करके नगर से निकाल दिया । में छिपा रखे थे उनका क्या हुआ ? राक्षस- (आप ही आप) मला, इतने तक तो विराध.- महाराज ! कुछ न पूछिए । कुछ चिंता नहीं, क्योंकि वह योगी है उसका घर बिना राक्षस- (घबड़ाकर) क्यों-क्यों क्या चाणक्य जी न घबड़ायगा । (प्रकाश) मित्र ! उसपर अपराध ने जान लिया ? विराध.-नहीं तो क्या ? विराध. - कि इसी दुष्ट ने राक्षस की भेजी राक्षस-कैसे? विषकन्या से पर्वतेश्वर को मार डाला । विराध.- महाराज ! चंद्रगुप्त के सोने जाने के राक्षस- (आप ही आप) वाह रे कौटिल्य पहले ही वह दुष्ट चाणक्य उस घर में गया और उसको निब कलंक हम पै धरयो, हत्यौ अर्ध बँटवार । चारों ओर से देखा तो भीतर की एक दरार से चिऊँटियाँ नीतिबीज तुव एक ही फल उपजवत हजार ।। चावल के कने लाती हैं । यह देखकर उस दुष्ट ने निश्चय कर लिया कि इस घर के भीतर मनुष्य छिपे (प्रकाश हाँ, फिर विराध.- फिर चंद्रगुप्त के नाश को इसने हैं । बस, यह निश्चय कर उसने घर में आग लगवा दारुवर्मादिक नियत किए थे यह दोष लगाकर दिया और धुआँ से घबड़ाकर निकल तो सके ही नहीं, इससे वे वीभत्सकादि वहीं भीतर ही जलकर राख हो शकटदास को शूली दे दी । गए। राक्षस-(दु:ख से) हा मित्र शकटदास! राक्षस- (सोच से) मित्र ! देख. चंद्रगुप्त का | तुम्हारी बड़ी अयोग्य मृत्यु हुई । अथवा स्वामी के हेतु भाग्य कि सब के सब मर गए । (चिता सहित) अहा ! | तुम्हारे प्राण गए । इससे कुछ सोच नहीं है, सोच हमी सखा ! देख दुष्ट चंद्रगुप्त का भाग्य ! लोगों का है कि स्वामी के मरने पर भी जीना चाहते हैं । कन्या जो विष की गई ताहि हतन के काज । विराध. मंत्री ! ऐसा न सोचिए. आप स्वामी तासों मार्यो पर्वतक जाको आधो राज ।। का काम कीजिये। सबै नसे कलबल सहित जे पठए बध हेत । उलटी मेरी नीति सब मौर्यहिं को फल देत ।। केवल है यह सोक, जीव लोभ अब लौं बचे । विराध.-महाराज! तब भी उद्योग नहीं स्वामि गयो परलोक, पै कृतघ्न इतही रहे ।। छोड़ना चाहिए - विराध.-महाराज ! ऐसा नहीं । ('केवल है प्रारभ ही नहिं विघ्न के भय अधम जन उद्यम सकें। यह ऊपर का छंद फिर से पढ़ता है) पुनि करहिं तौ कोउ विघ्न सों डरि मध्य ही मध्यम तर्जें। धरि लात विघ्न अनेक पै निरभय न उद्यम ते टरै। राक्षस-मित्र ! कहो, और भी सैकड़ों मित्रों का पुरुष उत्तम अंत में ते सिद्ध सब कारज करै ।। नाश सुनने को ये पापी कान उपस्थित हैं। विराष.- यह सब सुनकर चंदनदास ने बड़े वाह ? क्यों न हो? विराध.-मित्र । भारतेन्दु समग्र ३४६