पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३९१

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कष्ट से आपके कुटुंब को छिपाया । राक्षस-मित्र! उस दुष्ट चाणक्य के तो चंदनवास के विरुद्ध ही किया। विराध.- तो मित्र का बिगाड़ा करना तो अनुचित ही था : राक्षस- हाँ, फिर क्या हुआ ? विराध.- तब चाणक्य ने आपके कुटुम्ब को चंदनदास से बहुत मांगा पर उसने नहीं दिया, इस पर उस दुष्ट ब्राह्मण ने- राक्षस- (घबड़ाकर) क्या चंदनदास को मार डाला। विराध.-नहीं, मारा तो नहीं, पर स्त्री-पुत्र धन-समेत बांधकर बंदीघर में भेज दिया । राक्षस- तो क्या ऐसे सुखी होकर कहते हो कि बंधन में भेज दिया? अरे! यह कहो कि मंत्री राक्षस को कुटुंब सहित बाँध रक्खा है । अरे ! यह कहो कि मंत्री राक्षस को कुटुंब सहित बाँध रक्खा (प्रियंवदक आता है) प्रियंवदक-जय-जय महाराज! बाहर शकटदास खड़े हैं। राक्षस- (आश्चर्य से) सच ही ! प्रियं.-महाराज! आपके सेवक कभी मिथ्या बोलते हैं? राक्षस-मित्र विराधगुप्त ! यह क्या ! विराज.-महाराज! होनहार जो बचाया चाहे तो कौन मार सकता है। राक्षस-प्रियंवदक ! अरे जो सच ही कहता है तो उनको झटपट लाता क्यों नहीं ? प्रियं.-जो आज्ञा । (सिद्धार्थक के संग शकटदास आता है) शकटदास- (देखकर आप ही आप) वह सूली गड़ी जो बड़ी दृढ़ के, सो चंद्र को राज थिरचो प्रन तें। लपटी वह फांस की डोर सोई, मनु श्री लपटी वृषले मन तें ।। बजी डौंड़ी निरादर की नृप नंद के, सेऊ लख्यो इन आँखन ते ।। नहिं जानि परै इतनोहू भए, केहि हेतु न प्रान कड़े तन तें ।। (राक्षस को देखकर) यह मंत्री राक्षस बैठे हैं । अहा ! 'नंद गए ह नहिं तजत प्रभुसेवा को स्वाद । 'भूमि बैठि प्रगटत मनहुँ स्वामिभक्त-मरजाद ।। (पास जाकर) मंत्री की जय हो । राक्षस--(देखकर आनंद से) मित्र शकटदास! आओ, मुझसे मिल लो, क्योंकि तुम दुष्ट चाणक्य के हाथ से बच के आए हो 1 शकट.- (मिलता है) राक्षस (मिलकर) यहाँ बैठा। शकट.- जो आज्ञा । (बैठता है) राक्षस-मित्र शकटदास! कहो तो यह आनंद की बात कैसे हुई? शकट.- (सिदार्थक को दिखाकर) इस प्यारे सिद्धार्थक ने सूली देने वाले लोगों को हटाकर मुझको बचाया है। राक्षस- (आनंद से) वाह सिदार्थक ! तुमने काम तो अमूल्य किया है, पर भला! तब भी यह जो कुछ है सो लो । अपने अंग से आमरण उतार कर देता है) सिद्धा.- (लेकर आप ही आप) चाणक्य के कहने से मौ सब करूँगा । (पैर पर गिरके प्रकाश) महाराज! यहाँ में पहिले पहल आया हूँ, इससे मुझे यहां कोई नहीं जानता कि मैं उसके पास इन भूषणों को छोड़ जाऊँ। इससे आप इसी अंगूठी से इस पर मोहर करके अपने ही पास रखें, मुझे जब काम होगा ले जाऊंगा। राक्षस-क्या हुआ? अच्छा शकटदास! जो यह कहता है वह करो। शकट.-जो आशा) । (मोहर पर राक्षस का नाम देखकर धीरे से मित्र ! यह तो तुम्हारे नाम की मोहर है। राक्षस- (देखकर बड़े सोच से आप ही आप) हाय हाय त हाय हाय इसको तो जब मैं नगर से निकला था तो ब्राह्मणी ने मेरे स्मरणार्थ ले लिया था, यह इसके हाथ कैसे लगी ? (प्रकाश) सिद्धार्थक ! तुमने यह कैसे 1 (जाता है) इसको पाई? सिद्धा.-महाराज ! कुसुमपुर में जो चंदनदास जौहरी हैं उनके द्वार पर पड़ी पाई । राक्षस-तो ठीक है। सिद्धा.. महाराज ! ठीक क्या है? राक्षस- यही कि ऐसे धनिकों के घर बिना यह वस्तु और कहां मिले ? शकट-मित्र ! यह मंत्रीजी के नाम की मुहर है, इससे तुम इसको मंत्री को दे दो, तो इसके बदले तुम्हें बहुत पुरस्कार मिलेगा। सिद्धा.-महाराज! मेरे ऐसे भाग्य कहा कि मुद्रा राक्षस ३४७ 25