पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३९२

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तृतीय अंक स्थान -राजभवन की अटारी (कंचुकी आता है) सो।। आप इसे लें । (मोहर देता है) कुसुमपुर भेजें । (उठता है) अहाँ ! क्या उस मृतक राक्षस-मित्र शकटदास ! इसी मुद्रा से सब चाणक्य से चंद्रगुप्त से बिगाड़ हो जायगा ? क्यों काम किया करो। नहीं ? क्योंकि सब कामों को सिद्ध ही देखता हूँ । शकट. जो आज्ञा। चंद्रगुप्त निज तेज बल करत सवन को राज । सिद्धा. -महाराज! मैं कुछ बिनती करूँ ? तेहि समझत चाणक्य यह मेरी दियो समाज ।। राक्षस- हाँ हाँ! अवश्य करो । अपनो अपनो करि चुके काज रह्यो कछु जौन । सिद्धा. - यह तो आप जानते ही हैं कि उस अब जौ आपसु में लडै तौ बड़ अचरज कौन ।। दुष्ट चाणक्य की बुराई करके फिर मैं पटने में घुस (जाता हैं) नहीं सकता, इससे कुछ दिन आप ही के चरणों की सेवा किया चाहता हूँ। राक्षस- बहुत अच्छी बात है । हम लोग तो ऐसा चाहते ही थे, अच्छा है, यहीं रहो । सिद्धा.- (हाथ जोड़कर) बड़ी कृपा हुई । राक्षस-मित्र शकटदास! ले जाओ. इसके कंचुकी- रूप आदि विषय जो राखे हिये बहु उतारो और सब भोजनादिक को ठीक करो । हे रूप आदिक विषय जो राखे हिये बहु लोभ सों। शकट.-जो आज्ञा । सो मिटे इंद्रीगन सहित हवै सिथिल अतिही छोभ (सिद्धार्थक को लेकर जाता है) राक्षस-मित्र विराधगुप्त ! अब तुम कुसुमपुर मानत कट्यो कोउ नाहि सब अंग अंग ढीले ह्वै गए । तौह न तृष्णे ! क्यों तजत तू मोहि बूढ़ोहु भए । का वृत्तांत जो छूट गया था सो कहो । वहाँ के निवासियों को मेरी बातें अच्छी लगती हैं कि नहीं । (आकाश की ओर देखकर) अरे! अरे ! विराध.- बहुत अच्छी लगती हैं, वरन वे सब सुगांगप्रासाद के लोगों ! सुनो । महाराज चंद्रगुप्त ने तुम लोगों को यह आज्ञा दी कि 'कौमुदी-महोत्सव के तो आप ही के अनुयायी हैं । होने से परम शोभित कुसुमपुर को मैं देखना चाहता हूँ राक्षस-ऐसा क्यों ? इससे उस अटारी को बिछोने इत्यादि से सज रखो, देर विराध.. क्यों करते हो! (आकाश की ओर देखकर) क्या के निकलने के पीछे चाणक्य को चंद्रगुप्त ने कुछ चिढ़ा कहा ' कि क्या महाराज चंद्रगुप्त नहीं जानते कि दिया और चाणक्य ने भी उसकी बात न सहकर चंद्र- कौमुदी-महोत्सव अब की न होगा ? दुर दइमारो ! क्या गुप्त की आज्ञा भग करके उसके द:खी कर रखा है. मरने को लगे हो ? शीघ्रता करो । यह मैं भली भाँत जानता हूँ । सवैया राक्षस-(हर्ष से) मित्र विराधगुप्त ! जो तुम इसी सपेरे के भेष से फिर कुसुमपुर जाओ और वहाँ बहु फूल की माल लपेट के खंभन मेरा मित्र स्तनकलस नामक कवि है उससे कह दो कि धूप सुगंध सो ताहि धुपाइए । चाणक्य के आज्ञाभगादिकों के कवित्त बना बनाकर ता. चहूँ दिस चंद छपा से चंद्रगुप्त के बढ़ावा देता रहे और जो कुछ काम हो जाय सुसोभित चौर घने लटकाइए ।। वह करभक से कहला भेजे । भार सों चारु सिंहासन के विराध.-जो आज्ञा (जाता है) मुरछा में धरा परी धेनु सी पाड़ए । (प्रियंबदक आता है) छींट के तापै गुलब मिल्यौ प्रियं. .- जय हो महाराज! शकटदास कहते हैं जल चंदन ताकहँ जाइ जगाइए ।। कि ये तीन आभूषण बिकते हैं, इन्हें आप देखें। (आकाश की ओर देखकर) क्या कहते हो कि 'हम राक्षस- (देखकर) अहा यह तो बड़े मूल्य के लोग अपने काम में लग रहे हैं ?' अच्छा अच्छा गहने हैं . अच्छा शकट दास से कह दो कि दाम चुका झटपट सब सिद्ध करो । देखो ! वह महाराज चंद्रगुप्त कर ले लें। आ पहुँचे । प्रियं-जो आजा । (जाला है) बहु दिन श्रम करि नंद नृप बढ्यो राजपुर जौन । राक्षस-तो अब हम भी चलकर करमक को बालेपन ही में लियो चंद्र सीस निज तौन ।। इसका कारण यह है कि मलयकेतु भारतेन्दु समग्र ३४८