पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३९४

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'सो नृप नंदहि पुत्र सह नासि करी हम पूर्ण ।। चंद्रगुप्त राजा कियो करि राक्षस-मद चूर्ण ।। तिमि सोऊ मोहि नीति-बल छलन चहत इति चंद । पै मो आछत यह जतन वृथा तासु आति मंद ।। (ऊपर देखकर क्रोध से) अरे राक्षस ! छोड़-छोड़ यह व्यर्थ का प्रम; देख जिमि नृप नंदहि मारि के वृष लहि दीनों राज । आइ नगर चाणक्य किय दुष्ट सर्प सो काज ।। तिमि सोऊ नृप चंद्र को चाहत करन बिगार ।। निज लघु मति लाघ्यो चहत मो बल-बुद्धि-पहार ।। (आकाश की ओर देखकर) अरे राक्षस ! मेरा पीछा छोडो क्योंकि राज काज मंत्री चतुर करत बिना अभिमान । जैसी तुम नृप नंद हो चंद्र न तौन समान ।। तुम कदु नहिं चाणक्य सो साधौ कठिनहु काज । तासों हम सो बेर करि नहिं सरिहैं तुव राज ।। अथवा इसमें तो मुझे कुछ सोचना ही न चाहिए । हो प्रात रवि के कढ़त जिमि ससि तेज नसाइ ।। (प्रगट दंडवत करके) जय हो! आर्य की जय हो !! चाणक्य- (देखकर) कौन है, वैहीनर । क्यों आया है? कंचुकी- आर्य ! अनेक राजागणों के मुकुट- माणिक्य से सर्वदा जिनके पदतल लाल रहते हैं उन महाराज चंद्रगुप्त ने आपके चरणों में दंडवत् करके निवेदन किया है कि 'यदि आपके किसी कार्य में विघ्न न पड़े तो मैं आपका दर्शन किया चाहता हूँ। चाणक्य-वेहीनर ! क्या वृषल मुझे देखा चाहता है ? क्या मैंने कौमुदी महोत्सव का प्रतिषेध कर दिया है यह वृषल नहीं जानता ? कंचुकी-आर्य क्यों नहीं । चाणक्य- (क्रोध से) हैं ? किसने कहा ? कंचुकी- (भय से) महाराज प्रसन्न हों जब सुगांगप्रसाद की अटारी पर गए थे तो देखकर महाराज ने आप ही जान लिया कि कौमुदी महोत्सव अबकी नहीं क्योंकि- हुआ । मम भागुरायन आदि मृत्यन मलय राख्यौ घेरि के । तिमि गए सिद्धारथक ऐहैं तेउ काज निबेरि कै ।। अब लखहु करि छत्त कलह नृप सों भेद बुद्धि उपाइ कै। पर्बत जनन सों हम बिगारत राक्षसहि उलटाइ कै ।। कंचुकी- हा ! सेवा बड़ी कठिन होती है। नृप सों सचिव सों सब मुसाहेब-गनन सों डरते रहो । पुनि विटहु जे अति पास के तिनकों कयौ करतो रहौ। मुख लखत बीतत दिवस निसि भय रहत संकित प्रान है। निज उदर-पूरन हेतु सेवा स्वान-वृत्ति समान है ।। (चारों ओर घूमकर देखकर) अहा ! यही आर्य चाणक्य का घर है तो चलूं । (कुछ आगे बढ़कर और देखकर) अहाहा! यह राजाधिराज श्रीमंत्रीजी के घर की संपत्ति है । जो - कहुँ परे गोमय शुष्क, कहुँ सिल परी सोमा दै रही। कहुं तिल कहूँ जब-रासि लागी बटुन जो भिक्षा लडी ।। कहुँ कुस परे कहुं समिध सूखत भार सो ताके नयो । यह लखौ छप्पर महा जरजर होइ कैसो मुकि गयो ।। महाराज चंद्रगुप्त के भाग्य से ऐसा मंत्री मिला है । विन गुनहूँ के नृपन को धन हित गुरुजन धाई । सूखो मुख करि फूठहीं बहु गुन कहहिं बनाई ।। पै जिनको तृष्णा नहीं ते न लबार समान । तिनसों तृन सम धनिक जन पावत कबहुँ न मान ।। (देखकर डर से) अरे आर्य चाणक्य यहाँ बैठे हैं, जिन्होंने लोक धरपि चंद्रहि कियो राजा नंद गिराइ । चाणक्य अरे ठहर, मैंने जाना यह तुम्ही लोगों ने वृपल का जी मेरी ओर से फेरकर उसे चिढ़ा दिया है, और क्या । (कंचुकी भय से नीचा मुंह करके चुप रह जाता है) चाणक्य-अरे राज के कारबारियों का चाणक्य के ऊपर बड़ा ही विद्वेष पक्षपात है । अच्छा, वृषल कहाँ है । बता । कंचुकी- (डरता हुआ) आर्य ! सुगांगप्रासाद की अटारी पर से महाराज ने मुझे आपके चरणों में भेजा है। चाणक्य-(उठकर) कंचुकी सुगांगप्रासाद का मार्ग बता । कंचुकी- इधर महाराज । (दोनों घूमते हैं) कंचुकी-महाराज! यह सुगांगप्रासाद की सीढ़ियाँ हैं, चढ़े। (दोनों सुगांगप्रासाद पर चढ़ते हैं और चाणक्य के घर का परदा गिर के छिप जाता है) चाणक्य- (चढ़कर और चंद्रगुप्त को देखकर प्रसन्नता से आप ही आप) अहा ! वृषल सिंहासन पर बैठा है- हीन नंद सो रहित नृप चंद्र करत जेहि भोग । परम होत संतोष लखि आसन राजा भोग । (पास जाकर) जय हे वृषल की ! चंद्रगुप्त-(उठकर और पैरों पर गिरकर), भारतेन्दु समग्र ३५०