पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३९५

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बहै ।। आर्य! चंद्रगुप्त दंडवत करता है। (राग विहाग) चाणक्य-(हाथ पकड़कर उठाकर) उठो प्रथम वै. बेटा! उठो। अहो यह सरद संभु हवे आई । जह लौं हिमालय के सिखर सुरधुनी-कन सीतल रहै । कास-फूल फूले चहुँ दिसि तें सोइ मनु भस्म लगाई ।। जह लौ विविध मणिखंड-मडित समुद दच्छिन दिसि चंद उदित सोइ सीस अभूषन सोभा लगति सुहाई । तासों रंजित घन-पटली सोइ भनु गज-खाल बनाई ।। तहँ लौ सबै नृप आइ भय सों तोहि सीस झुकावहीं । फूले कुसुम मुंडमाला सोइ सोहत अति धवलाई । तिनके मुकुट-मणि रँगे तुव पद निरखि हम सुख पावहीं। राजहंस सोभा सोइ मानों हास-विमव दरसाई ।। चंद्र.- आर्य ! आपकी कृपा से ऐसा ही हो रहा अहो यह सरद संभु बनि आई । है। बैठिए। (राग कलिंगड़ा) हरी हरि-नेन तुम्हारी बाधा । (दोनों यथास्थान बैठते हैं) सरद-अंत लखि सेस अंक तें जगे जगत-सुभ-साधा।। चाणक्य- वृषल ! कहाँ मुझे क्यों बुलाया कहु कछु खुले मूंदै कछु सोभित आलस भरि अनियारे अरुन कमल से मद के माते थिर मे जदपि ढरारे।। चंद्रगुप्त- आर्य के दर्शन से कृतार्थ होने को । सेस सीस मनि चमक-चकौंधन तनिकहुँ नहिं सकुचाहीं। चाणक्य- (हंसकर) भया बहुत शिष्टाचार सकुचाहीं ।। हुआ, अब बताओ क्यों बुलाया है ? क्योंकि राजा लोग नींद भरे श्रम जगे चुभत जे नित कमला-उर माहीं ।। किसी को बेकाम नहीं बुलाते । हरौ हरि-नैन तुम्हारी बाधा । चाणक्य- जब पूछना ही है तब तुमको इससे दूसरा वै.- कड़खे की चाल में) में क्या फल सोचा है? अहो जिनको विधि सब जीव सों बढ़ि दीनो जग काज । चाणक्य (हंसकर) तो यही उलाहना देने को अरे, दान-सलिल-वारे सदा जे जीतहिं गजराज ।। बुलाया है न? अहो, यूक्यो न जिनको मान ते नृपवर जग सिरताज।। चंद्र- उलाहना देने को कभी नहीं है बे, सहहिं न आज्ञा-मंग जिमि दंतपात मृगराज ।। चाणक्य-तो क्यों ? अरे, केवल बहु गहिना पहिरि राजा होइ न कोय । चंद्र-पूछने को । अहो, जाकी नहिं आज्ञा टरै सो नृप तुम सम होय ।। चाणक्य-ज्ब पूछना ही है तब तुमको इससे चाणक्य- (सुनकर आप ही आप) भला क्या ? शिष्य को सर्वदा गुरु की रुचि पर चलना पहिले ने तो देवता रूप शरद के वर्णन में आशीर्वाद चाहिए। दिया, पर इस दूसरे ने कहा ? (कुछ सोच कर) अरे चंद्र- इसमें कोई संदेह नहीं पर आपकी रुचि जाना, यह सब राक्षस की करतूत है । अरे दुष्ट बिना प्रयोजन नहीं प्रवृत्त होती । इससे पूछा । राक्षस ! क्या तू नहीं जानता कि अमी चाणक्य सो चाणक्य-ठीक है, तुमने मेरा आशय जान नहीं गया है? लिया, बिना प्रयोजन के चाणक्य की रुचि किसी ओर चंद्र.. - अजी वैहीनर ! इन दोनों गानेवालों कभी फिरती ही नहीं। को लाख-लाख मोहर दिलवा दो । चंद्र- इसी से तो तुमने बिना मेरा जी अकुलाता वैहीनर-- जो आज्ञा महाराज । (उठकर जाना चाहता है) चाणक्य सुनो, अर्थशास्त्रकारों ने तीन चाणक्य-वैहोनर, ठहर अभी मत जा, प्रकार के राज्य लिखे है - एक राजा के भरोसे, दूसरा वृषल, कुपात्र को इतना क्यों देते हो? मंत्री के भरोसे, तीसरा राजा और मंत्री दोनों के भरोसे; चंद्र. .- आप मुझे सब बातों में यों ही रोक दिया सो तुम्हारा राज तो केवल सचिव के भरोसे है ; फिर करते हैं, तब यह मेरा राज्य क्या है वरन् उलटा बंधन इन बातों के पूछने से क्या ? व्यर्थ मुंह दुखाना है, यह सब हम लोगों के भरोसे है, हम लोग जाने । चाणक्य- वृषल ! जो राजा आप असमर्थ (राजा क्रोध से मुंह फेर लेता है ; नेपथ्य में दो | होते हैं उनमें इतना ही तो दोष है, इससे जो ऐसी इच्छा। वैतालिक गाते हैं) । हो तो तुम अपने राज का प्रबंध आप कर लो। मुद्रा राक्षस ३५१