चंद्र. - बहुत अच्छा, आज से मैंने सब काम डूबकर अपने काम से निरे बेसुध रहते थे । इससे मैंने उनसे अधिकार लेकर केवल निर्वाह के योग्य जीविका सम्हाला । चाणक्य-इससे अच्छी और क्या बात है, कर दी थी, इससे उदास होकर कुमार मलयकेतु के तो मैं भी अपने अधिकार पर सावधान हूँ। पास चले गए और वहाँ अपना-अपना कार्य सुनाकर चंद्र.- जब यही है तो पहिले मैं पूछता हूँ कि | फिर उसी पद पर नियुक्त हुए हैं और हिंगुरात और कौमुदी महोत्सव का निषेध क्यों किया गया ? बलगुप्त ऐसे लाली हैं कि कितना भी दिया पर अंत चाणक्य-मैं भी यही पूछता हूँ कि उसके | में मारे लालच के कुमार मलयकेतु के पास इस लोभ होने का प्रयोजन क्या था ! से जा रहे कि यहीं बहुत मिलेगा, और जो आपका चंद्र.- पहिले तो मेरी आज्ञा का पालन । लड़कपन का सेवक राजसेन था उसने आपकी थोडी ही चाणक्य-मैंने भी आप की आज्ञा के अपालन कृपा से हाथी, घोड़ा, घर और धन सब पाया, पर इस के हेतु की कौमुदी-महोत्सव का प्रतिषेध किया, भय से भागकर मलयकेतु के पास चला गया कि सब क्योंकि धन छिन न जाय, और वह जो सिंहबलदत्त सेनापति आइ चारह सिंधु के छोरहु के भूपाल । का छोटा भाई भागुरायण है उससे पर्वतक से बड़ी जो शासन सिर पै धरै बिमि फूलन की माल ।। प्रीति थी सो उसने कुमार मलयकेतु से यह कहा कि तोहि जौ कछु टारहीं सोउ तुव हित उपदेस । "जैसे विश्वासघात करके चाणक्य ने तुम्हारे पिता को जासो तुमरो विनय गुन जग मैं बढ़े नरेस ।। मार डाला वैसे ही तुम्हें भी मार डालेगा इससे यहां से चंद्र. और जो दूसरा प्रयोजन है वह भी सुनूं । भाग चलो" ऐसे ही बहकाकर कुमार मलयकेतु को भगा दिया और जब आपके बैरी चंदनदासादिकों को दंड हआ चाणक्य- वह भी कहता हूँ। कृपा से हाथी, घोड़ा, घर और धन सब पाया, इस म्य चंद्र.- कहिए । से भाग कर मलयकेतु के पास चला गया कि सब धन चाणक्य-शोणोत्तरे ! अचलदत्त कायस्थ से छिन न जाय, और वह जो सिंहबलदत्त सेनापति का कहो कि तुम्हारे पास जो भद्रभट इत्यादिकों का लेखपत्र | छोटा भाई भागुरायण है उससे पर्वतक से बड़ी प्रीति है वह माँगा है। थी सो उसने कुमार मलयकेतु से यह कहा कि "जैसे प्रतिहारी-जो आज्ञा । (बाहर से पत्र लाकर विश्वासघात करके चाणक्य ने तुम्हारे पिता को मार देती है) डाला वैसे ही तुम्हें मी मार डालेगा इससे यहां से भाग चाणक्य- वृषल, सुनो। चलो" ऐसे ही बहकाकर कुमार मलयकेतु को भगा चंद्र.- मैं उधर ही कान लगाए हूँ । तब मारे डर के मलयकेतु के पास जा रहा । उसने भी चाणक्य-(पढ़ता है) स्वस्ति परम प्रसिद्ध यह समझकर कि इसने मेरे प्राण बचाए और मेरे पिता महाराज श्री चन्द्रगुप्त देव के साथी जो अब उनको का परिचित भी है उसको कृतज्ञता से अपना अंतरंगी छोड़कर कुमार मलयकेतु के आश्रित हुए हैं उनका मंत्री बनाया है, और वे जो रोहिताक्ष और विजयवर्मा यह प्रतिज्ञापत्र है। पहिला गजाध्यक्ष भद्रभट, थे वे ऐसे अभिमानी थे कि जब आप उनके नातेदारों अश्वाध्यक्ष पुरुषदत्त महाप्रतिहार चंद्रभानु का भानजा का आदर करते थे तब वह कुढ़ते थे, इसी से वे भी हिंगुरात, महाराज के नातेदार महाराज बलगुप्तः | मलयकेतु के पास चले गए, बस, यही उन लोगों की महाराज के लड़कपन का सेवक राजसेन, सेनापति | उदासी का कारण है। सिंहबलदत्त का छोटा भाई भागुरायण, मालवा के राजा चंद्र-आर्य । जब इन सबके भागने का उद्यम का पुत्र रोहिताश्व और क्षत्रियों में सबसे प्रधान विजय- जानते ही थे तो क्यों न रोक रखा ? वर्मा (आप ही आप) ये हम सब लोग यहाँ महाराज का चाणक्य-ऐसा कर नहीं सके। काम सावधानी से साधते है (प्रकाश) यही इस पत्र में चंद्र- क्या आप इसमें असमर्थ हो गए वा कुछ लिखा है। सुना? उसमें भी प्रयोजन था? चंद्र.- आर्या, में इन सबों के उदास होने का चाणक्य-असमर्थ कैसे हो सकते हैं ? • कारण सुनना चाहता हूँ। उसमें भी कुछ प्रयोजन ही था । चाणक्य-वृषल ! सुनो -जो गजाध्यक्ष चंद्र.. आर्य । वह प्रयोजन मैं सुनना चाहता और अश्वाध्यक्ष थे वे रात-दिन मद्य, स्त्री और जुआ में SOS भारतेन्दु समग्र ३५२