पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मा समय में यह यात्रा कही. जिसका फल पराजय है। 'राक्षस-बी, पहिले तो तिथि ही नहीं शुद्ध सिद्धार्थक आता है) है। सिद्धार्थक-अहाहा! क्षप.-उपासक! देशकाल के कलश में सिंची बुद्धि-जल जोन । एक गुनी तिथि होत है, त्यो चौगुन नक्षत्र लता नीति चाणक्य की बहु फल देहे सीन ।। हागन खेत चौतिस गुनो, यह भाखत सब पत्र ।। अमात्य राक्षस की मोहर का, आर्य चाणक्य का लिखा लगन होत है शुभ लगन खोहि क्रूर ग्रह एक । हुआ यह लेख और मोहर की हुई यह आभूषण की जाहु चंद कल देखि के पाचहु लाभ अनेक ।।२ पेटिका लेकर मैं पटने जाताई। (नेपव्य की ओर राक्षस अजी. तुम और ज्योतिषियों से जाकर देखकर) अरे ! यह क्या क्षपणक आता है? हाय हाय ! मगहो। यह तो धुरा आसगुन हुआ । तो में सूरज का देखकर क्षप.-आप ही झगडिउ. में जाता हूँ। इसका दोष छुड़ा। राक्षस-क्या आप रूस तो नहीं गए? विपनक आता है) क्षप.- नही, नुमसे ज्योतिषी नहीं रुसा है। क्षप.- राक्षस-तो कोन रुसा है। नमो नमो अहंत को, जो निज बुद्धि प्रताप । क्षप.- (अप हो आप) भगवान), कि तुम लोकोत्तर की सिद्धि सब करत हस्तगत आप ।। अपना पक्ष छोड़कर शत्रु का पक्ष से बैठे हो । लिज्ञा.-मदत! प्रणाम । (जाता है) क्षप.-उपासक ! धर्म लाभ हो । (भली भांति राक्षस- प्रियंवदक ! देख तो कोन समय है। देखकर) आज तो समुद्र पार होने का बड़ा भारी उद्योग प्रिपं.-जो आज्ञा । (बाहर से हो आता है) कर रखा है। आर्य! सूर्यास्त होता है। सिखा.- भदंत तुमने कैसे जाना ? राक्षस-(आसन से उठकर और देखकर) क्षप.- इसमें छिपी कोन बाता है जैसे समुद्र आहा ! भगवान सूर्य अस्ताचल को चले- | में नाव पर सब के आगे मार्ग दिखलाने वाला मांझी जब सूरज उदयो प्रबल, तेज धारि आकाश । रहता है, वैसे ही तेरे बच में यह लखोटा है। स्व उपवन तरुवर सबै सायाबुत मे पास ।। सिद्धा.- अजी भदत ! मला यह तुमने ठीक दूर परे ले तरु सबै अस्त भए रवि ताप ।। जाना कि में परदेश जाता है. पर यह कहा कि आज दिन जिमि धन बिन स्वामिहि तजे भुत्य स्वारथी श्राप ।। कैसा है? (दोनों जाते है। क्षप.- (हंसकर) वाह श्रावक वाह ! तुम मुंह मंडाकर भी नक्षत्र पूछते हो? सिद्धा.- भता अभी क्या बिगड़ा है। कहते पंचम अंक क्यों नहीं ? दिन अच्छा खेगा जायंगे, न अच्छा होगा न (हाथ में मोहर और गहिने की पेटी और पत्र लेकर | वायंगे । को जाना है । नक्षत्र बक्षिण है अर्थात आपका बाम (विरुद्ध पक्ष) नक्षत्र और आपका दक्षिण पक्ष (मलयकेतु) नक्षत्र (विना क्षत्र के) अथए इत्यादि तुम जो सूर हो उसकी बुद्धि के अस्त के समय और चंद्रगुप्त के उदय के समय जाना अच्छा है अर्थात् चाणक्य की ऐसे समय में जय होगी । लग्न अर्थात कारण भाव में बुध चाणक्य पड़ा है इससे केतु अर्थात मलयकेतु का उदय भी है तो भी अस्त ही होगा । अर्थात इस युद्ध में चंद्रगुप्त कीोगा और मलयकेतु हारेगा सूर अथए – इस पद से जीषसिद्धि ने अमंगल भी किया । आश्विन पूर्णिमा तिथि, भरणी नक्षत्र, गुरुवार, मेष के यानमा चंद्रमा मीन लान में उसने यात्रा बतलाई । इसमें भरणी नक्षत्र, गुरुवार, पूर्णिमा तिथि यह सब दक्षिण निषिद्ध है । फिर सूर्य मृत है. नद्र जोषित है यह भी बुरा है । लग्न में मीन का बुध पड़ने से नीच का शेने से बुरा है। यात्रा में नक्षत्र दक्षिण ही से बुरा है। २. मलयकेतु का साथ छोड़ दो तो तुम्हारा भला हो । वास्तव में चाणक्य के मित्र होने से जीवसिद्धि ने साइत भी उलटी दी । ज्योतिष के अनुसार अत्यंत क्रूर बेला, कर ग्रावेष में युद्ध आरंभ होना चाहिए । उसके विरुद्ध मुद्रा राक्षस ३५९