पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४०५

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होगा। भागु. तो जाओ, हम तुमको परवाना न जाता है) देंगे। भागु.-कुमार ! बात यह है कि अर्थशास्त्रवालों क्षप.- (आप ही आप की भांति) जो वह इतना की मित्रता और शत्रुता अर्थ ही के अनुसार होती है, आग्रह करता है तो कह दें । (प्रगट) श्रावक ! निरुपाय साधारण लोगों की भांति इच्छानुसार नहीं होती । उस होकर कहना पड़ा । सुनो । मैं पहिले कुसुमपुर में समय सर्वार्थसिद्धि को राक्षस राजा बनाया चाहता था रहता था, तब संयोग से मुझसे राक्षस से मित्रता हो तब देव पर्वतेश्वर ही उस कार्य में कंटक थे तो उस गई. फिर उस दुष्ट राक्षस ने चुपचाप मेरे द्वारा कार्य की सिद्धि के हेतु यदि राक्षस ने ऐसा किया तो कुछ विषकन्या का प्रयोग कराके विचारे पर्वतेश्वर को मार दोष नहीं आप देखिए - डाला। मित्र शत्रु हो जात है, शत्रु करहिं अति नेह । मलय- (आखों में पानी भर के) हाय हाय ! अर्थ-नीति-बस लोग सब बदलहिं मानहुँ देह ।। राक्षस ने हमारे पिता को मारा, चाणक्य ने नहीं मारा । इससे राक्षस को ऐसी अवस्था में दोष नहीं देना हा! चाहिए। और जब तक नंदराज्य न मिले तब तक उस भागु.- हाँ, तो फिर क्या हुआ ? पर प्रकट स्नेह ही रखना नीतिसिद्ध है : राज मिलने पर क्षप.- फिर मुझे राक्षस का मित्र जानकर उस कुमार जो चाहेंगे करेंगे। दृष्ट चाणक्य ने मुझको नगर से निकाल दिया : तब मैं मलय.-- मित्र ! ऐसा ही होगा । तुमने बहुत राक्षस के यहाँ आया. पर राक्षस ऐसा जालिया है कि | ठीक सोचा है । इस समय इसके वध करने से प्रजागण अब मुझको ऐसा काम करने को कहता है जिससे मेरा उदास हो जायेंगे और ऐसा होने से जय में भी संदेह प्राण जाय। भागु.- भदंत ! हम तो यह समझते हैं कि | (एक मनुष्य आता है) पहिले जो आधा राज देने को कहा था. यह न देने को मनुष्य-कुमार की जय हो ! कुमार के चाणक्य ही ने यह दुष्ट कर्म किया, राक्षस ने नहीं कटकद्वार के रक्षाधिकारी दार्चचक्षु ने निवेदन किया है किया । कि "मुद्रा लिए बिना एक पुरुष कुछ पत्र-सहित क्षप.- (कान पर हाथ रखकर) कभी नहीं, बाजार जाता हुआ पकड़ा गया है सो उसको एक बेर चाणक्य तो विषकन्या का नाम भी नहीं जानता : यह आप देख लें।" घोर कर्म उस दुर्बुद्धि राक्षस ही ने किया है। भागु.- अच्छा, उसको ले आओ। भागु.-- हाय हाय ! बड़े कष्ट की बात है । लो पुरुष-जो आज्ञा । मुहर तो तुमको देते हैं. पर कुमार को भी यह बात सुना (जाता है और हाथ बंधे हुए सिद्धार्थक को लेकर आता दो। है) मलय.--(आगे बढ़कर) सिद्धा- (आप ही आप) सुन्यो मित्र. श्रुति-भेद-कर शत्रु कियो जो हाल । गुन पै रिझवति दोस सों दूर बचावति जौन । पिता मरन को मोहि दुख दुगुन भयो एहि काल ।। स्वाभि-भक्ति जननी सरिस, प्रनमत नित हम तौन ।। क्षप.- (आप ही आप) मलयकेतु दुष्ट ने यह पुरुष- (हाथ जोड़कर) कुमार ! यही मनुष्य बात सुन ली तो मेरा काम हो गया । (जाता है) है। मलय. (दांत पीसकर ऊपर देखकर) अरे भागु.- (अच्छी तरह देखकर) यह क्या बाहर का मनुष्य है या नहीं किसी का नौकर है। जिन तोपै विश्वास करि सौप्यो सब धन धाम । सिद्धा.-मैं अमात्य राक्षस का पासवर्ती सेवक ताहि मारि दुख दै सबन साँचो किय निज नाम ।। भागु.- (आप ही आप) आर्य चाणक्य की आज्ञा भागु. क्यों मुद्रा है कि "अमात्य राक्षस के प्राण की सर्वथा रक्षा करना" बाहर जाते थे? इससे अब बात फेरें । (प्रकाश) कुमार ! इतना आवेग सिद्धा.-आर्य! काम की जल्दी से । मत कीजिए। आप आसन पर बैठिए तो मैं भागु.- ऐसा कौन काम है, जिसके आगे निवेदन करूँ। राजाज्ञा का भी कुछ मोल नहीं गिना ? मलय. मित्र, क्या कहते हो ? कहो । बैठ (सिद्धार्थक भागुरायण के हाथ में लेख देता है) राक्षस! तो तुम लिए बिना कटक के NEM मुद्रा राक्षस ३६१