पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जायं। 1 और भय से यह कुछ न कह सकेगा. इससे तुम सब यह वृत्तांत कह देगा तो मलयकेतु फिर बहक जायगा । बात आर्य से कहो । (प्रकाश) कुमार ! शकटदास, ने अमात्य राक्षस के भागु.- कुमार की जो आज्ञा । अमात्य ! यह सामने लिखा होगा तो भी न स्वीकार करेंगे, इससे कहता है कि अमात्य राक्षस ने हमको चिट्ठी देकर और उनका कोई और लेख मँगाकर अक्षर मिला लिए संदेश कह कर चंद्रगुप्त के पास भेजा है। राक्षस-भद्र सिदार्थक! क्या यह सत्य है ? मलय.-विजये ! ऐसा ही करो। सिद्धा. (लज्जा नाट्य करके) बहुत मार खाने भागु. और मुहर भी आवे के डर से कह दिया । मलय.. हाँ, वह भी। राक्षस- कुमार! यह झूठ है, मार खाने से कचुकी-जो आज्ञा (बाहर जाती है और पत्र लोग क्या नहीं कह देते? और मुहर लेकर आती है) कुमार ! यह शकटदास का मलय.- भागुरायण ! चिट्ठी दिखला दो और लेख और मुहर है। संदेशा वह अपने मंह से कहेगा । मलय.- (देखकर और अक्षर और मुहर की मिलान करके) आर्य! अक्षर तो मिलते हैं। (भागुरायण चिट्टी खोलकर 'स्वस्ति कहीं से कोई किसी को' इत्यादि पढ़ता है)। राक्षस-(आप ही आप) अक्षर नि:संदेह राक्षस- कुमार ! कुमार ! यह सब शत्रु का | मिलते हैं, किंतु शकटदास हमारा मित्र है, इस हिसाब प्रयोग है। से नहीं मिलते । तो क्या शकटदास ही ने लिखा. अथवा मलय.- लेख शून्य करने को आर्य ने जो आभरण भेजे हैं वह शत्रु कैसे भेजेगा ? आभरण पुत्र दार की याद करि स्वामि भक्ति तजि देत । दिखलाता है)। छोड़ि अचल जस को करत चल धन सों जन हेत ।। राक्षस कुमार यह मैंने किसी को नही या इसमें संदेह ही क्या है? भेजा । कुमार ने यह मुझको दिया और मैंने प्रसन्न मुद्रा ताके हाथ में. सिदार्थक हू मित्र । होकर सिदार्थक को दिया । ताही के कर को लिख्यो. पत्रहु साधन चित्र । भागु.- अमात्य ! क्या ऐसे उत्तम आभरणों मिलि के शत्रुन सों करन भेद भूलि निज धर्म । को. विशेष कर क्या अपने अंग से उतार कर कुमार की स्वामि विमुख शकटहि कियो, निश्चय यह खल कर्म ।। मलय.- आर्य ! श्रीमान् ने तीन आभरण भेजे दी हुई वस्तु का यह पात्र है ? सो मिले, यह जो आपने लिखा है सो उसी में का एक मलय.-और संदेश भी बड़े प्रामाणिक सिद्धार्थक आभरण यह भी है ? (राक्षस के पहने हुए आभरण को सुनना, यह आर्य ने लिखा है। राक्षस-कैसा सन्देश और कैसी चिट्ठी? यह देखकर आप ही आप) क्या यह पिता के पहने हुए आभरण है ? (प्रकाश) आर्य, यह आभरण आपने कहाँ हमारा कुछ नहीं है ! से पाए? मलय.- तो मुहर किसकी है " राक्षस-धूर्त लोग कपटमुद्रा भी बना लेते हैं । राक्षस-जौहरी से मोल लिया था। भागु.- कुमार! अमात्य सच कहते हैं। मलय.- विजये ! तुम इन आभरणों को सिदार्थक यह चिट्टी किसकी लिखी है? पहचानती हौ? (सिद्धार्थक राक्षस का मुंह देखकर चुप रह जाता है) प्रति. .- (देख कर आँसू भर के) कुमार ! हम भागु.-चुप मत रहो ! जी कड़ा करके कहो । सुगृहीत नामधेय महाराज पर्वतेश्वर के पहिरने के सि-आर्य ! शकटदास ने । आभरणों को न पहचानेंगी? राक्षस-शकटदास ने लिखा तो मानों मैंने ही मलय.- (आँखों में आँसू भर के) भूषण-प्रिय ! भूषण सर्व, कुल भूषण ! तुव अंग । मलय. विजये! शकटदास को हम देखा तुव मुख ढिग इमि सोहतो, जिमि ससि तारन संग ।। चाहते हैं। राक्षस-(आप ही आप) ये पर्वतेश्वर के पहने भागु.-(आपही आप) आर्य चाणक्य के लोग हुए आभरण हैं ? (प्रकाश) जाना, यह भी निश्चय (बिना निश्चय समझे हुए कोई बात नहीं करते । जो चाणक्य के भेजे हुए जौहरियों ने ही बेचा है ? शकटदास आकर यह चिट्ठी किस प्रकार लिखी गई है मलय.-आर्य ! पिता के पहने हुए आमरण लिखा। भारतेन्दु समग्र ३६४