पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४०९

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(जाता है और फिर चंद्रगुप्त के हाथ पड़े हुए जौहरी बेंचे, यह मलय. -दैव से पूछे, जीवसिद्धि भी क्षपणक से कभी हो नहीं सकता । अथवा हो सकता है न पूछे? अधिक लाभ के लोभ सों, कूर! त्यागि सब नेह । राक्षस- (आप ही आप) क्या जीवसिद्धि भी बदले इन आभरन के तुम बेच्यौ मम देह ।। चाणक्य का गुप्तचर है ! हाय ! शत्रु ने हमारे हृदय पर राक्षस- (आप ही आप) अरे ! यह दांव तो पूरा | भी अधिकार कर लिया ? बैठ गया । मलय.- (क्रोध से) भासुरक, शिखरसेन मम लेख नहिं यह किमि कहैं मुद्रा छपी जब हाथ की । सेनापति से कहो कि राक्षस से मिलकर चंद्रगुप्त को विश्वास होत न शकट तजिहै प्रीति कबहूँ साथ की ।। प्रसन्न करने को पाँच राजे जो हमारा बुरा चाहते हैं, पुनि बेचिहै नृप चंद भूषण कौन यह पतियाइहै। उनमें कौलूत चित्रवर्मा, मलयाधिपति सिंहनाद और तासो भलो अब मौन रहनो कथन तें पति जाइहै ।। कश्मीराधीश पुष्कराक्ष ये तीन हमारी भूमि की कामना मलय.- आर्य ! हम यह पूछते हैं ? रखते हैं, सो इनको भूमि ही में गाढ़ दे; और सिंधुराज राक्षस-जो आर्य हो उससे पूछो ; हम अब सुषेण और पारसीकपति मेघाक्ष हमारी हाथी की सेना पापकारी अनार्य हो गए हैं। चाहते हैं सो इनको हाथी ही के पैर के नीचे पिसवा दे । मलय. पुरुष-जो कुमार की आज्ञा । स्वामि पुत्र तुव मौर्य, हम मित्र पुत्र सह हेत । मलय.- राक्षस ? हम मलयकेतु हैं, कुछ पैही उत वाको दियो, इत तुम हमको देत ।। तुमसे विश्वासघाती राक्षस नहीं है । इससे तुम जाकर सचिवहु भे उत दास ही, इत तुम स्वामी आप । अच्छी तरह चंद्रगुप्त का आश्रय करो । कौन अधिक फिर लोभ जो, तुम कीन्हो यह पाप ।। चंद्रगुप्त-चाणक्य सो मिलिए सुख सो आप । राक्षस- (आँखों में आँसू भर के) कुमार ! हम तीनहुँ को नासिहै जिमि त्रिवर्ग कहँ पाप ।। इसका निर्णय तो आप ही ने कर दिया - भागु.- कुमार ! व्यर्थ अब कालक्षेप मत स्वामि पुत्र मम मौर्य, तुम मित्र पुत्र सह हेत । कीजिए । कुसुमपुर घेरने को हमारी सेना चढ़ चुकी पैहैं उत वाको दियो, इत हम तुमको देत ।। सचिवहु भे उत दास ही, इत हम स्वामी आप । उड़िकै तियगन गंड जुगल कहँ मलिन बनावति । कौन अधिक फिर लोभ जो, हम कीन्हो यह पाप ।। अलिकुल से कल अलकन निज कन धवल छवावति ।। मलय.- (चिट्ठी, पेटी इत्यादि दिखला कर) चपल तुरग-खुर घात उठी घन घुमड़ि नबीनी । सत्रु-सीस पैं धूरि परै गजमद सों भीनी ।। यह सब क्या है? (अपने भृत्यों के साथ मलयकेतु जाता है) राक्षस-(आँखों में आंसू भर के) यह सब चाणक्य ने नहीं किया दैव ने किया । राक्षस- (घबड़ाकर) हाय ! हाय ! चित्रवादिक साधु सब व्यर्थ मारे गए । हाय ! राक्षस की सब चेष्टा निज प्रभु सों करि नेह जे भृत्य समर्पत देह । शत्रु के नहीं, मित्रों ही के नाश करने को होती है । अब तिन सों अपने सुत सरिस सदा निबाहत नेह ।। हम मंदभाग्य क्या करें? ते गुणागाहक नृप सबै जिन मारे छन माहि । जाहि तपोवन, पैन मन शांत होत सह क्रोध । ताही बिधि को दोस यह औरन को कछु नाहिं ।। मलय.- क्रोधपूर्वक) अनार्य ! अब तक छल | खींचि खंगकर पतंग सम जाहिँ अनल-अरि-पास । प्रान देहि रिपु के जियत यह नारिन को बोध ।। किए जाते हो कि यह सब दैव ने किया । पै साहस होइहै चंदनदास विनास ।। विषकन्या दै पितु हत्यौ प्रथम प्रीति उपजाय । (सोचता हुआ जाता है) अब रिपु सों मिलि हम सबन बधन चहत ललचाय ।। राक्षस- (द :स से आप ही आप) हा ! यह और जले पर नमक है । (प्रगट कानों पर हाथ रखकर) नारायण ! देव पर्वतेश्वर का कोई अपराध हमने नहीं किया। स्थान -- नगर से बाहर सड़क मलय. -फिर पिता को किसने मारा ? राक्षस- यह दैव से पूछो । (कपड़ा, गहिना पहिने हुए सिद्धार्थक आता है) या षष्ठा अंक मुद्रा राक्षस ३६५