पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४१

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भक्त-सर्वस्व अर्थात् श्रीचरण-चिन्ह-वर्णन (रचना-काल -१८७०) तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः मेडिकल हाल के छापेखाने में १८७० में छपा प्रस्तावना इस छोटे से ग्रंथ में श्रीयुगल स्वरूप के श्रीचरण के अगाध चिन्हों के मति अनुसार कुछ भाव लिखे है। यद्यपि इसकी कविता काव्य के सब गुणों से (सत्य ही) हीन है, तथापि इसका मुझे शोच नहीं है, क्योंकि यह ग्रंथ मैंने अपनी कविता प्रगट करने और कवियों को प्रसन्न करने को नहीं लिखा है, केवल (अपनी) वाणी पवित्र करने और प्रेम-रंग में रंगे हुए वैष्णवों के आनन्द के हेतु लिखा है। इसमें श्री भागवत के अनुसार बहुत से भाव लिखे है, इस कारण से श्री भागवत जाननेवालों को इसका स्वाद विशेष मिलेगा। अनुप्रासों की संकीर्णता से इसमें पुनरुक्ति बहुत है, जिसको रसिक लोग (भगवन्नामांकित जान कर) क्षमा करेंगे। मैं आशा करता हूँ कि जो रसिक भगवदीय जन इसको पाठ करें, वह मेरे (इस) बाल-चापल्य को क्षमा करें और (जहाँ तक हो सके) इस पुस्तक को कुरसिकों से बचावें और अनुग्रहपूर्वक सर्वदा मुझ से दीन को (अपना दास जान कर) स्मरण रक्खें। श्रीहरिश्चन्द्र भक्त्त-सर्वस्व अथ चरण-चिन्ह-वर्णन चंद्रभानु नृप-नंदिनी चंद्राननि सुकुवारि । दोहा कृष्णचंद्र-मन-हारिनी जय चंद्रावलि नारि ७ जयति जयति श्री राधिका चरण जुगल करि नेम । जै जै ब्रज-जुवती सबै जिन सम जग नहिं कोइ । जाकी छटा प्रकास तें पावत पामर प्रेम ।१ मगन भई हरि-रूप मैं लोक-लाज-भय खोई 1 जयति जयति तैलंग-कुल रत्नद्वीप-द्विजराज । जसुदा लालित ललनवर कीरति-प्रान-अधार । श्री बल्लभ जग-अघ-हरन तारन पतित-समाज ।२ श्याम गौर द्वै रूप धर जै जै नंद-कुमार ।९ नमो नमो श्री हरि-चरण शिव-मन-मंदिर रूप । जै जै श्री वल्लभ विमल तैलंग कुल द्विजराज । वास हमारे उर करौ जानि परयो भव-कूप ।३ भुव प्रगटित आनन्दमय विष्णु स्वामि पथ-काज ।१० प्रगटित जसुमति-सीप तें मधि ब्रज-रतनागार । तम पाखंडहि हरत करि जन-मन-जलज-विकास । जयति अलौकिक मुक्त-मणि ब्रज-तिय को श्रृंगार ।४ जयति अलौकिक रवि कोऊ श्रुति-पथ करन प्रकास ।११ दक्षिन दिसि चंद्रावली श्री राधा दिसि वाम । मायावाद-मतंग-मद हरत गरजि हरि-नाम । तिन के मधि नट रूप धर जै जै श्री घनश्याम ।५ जयति कोऊ सो केसरी बृन्दाबन बन धाम ।१२ हरि-मन-कुमुद-प्रमोद-कर ब्रज-प्रकासिनी वाम । गोपीनाथ अनाथ-गति जग-गुरु विठ्ठलनाथ । जयति कापिसा-चंद्रिका राधा जाको नाम । जयति जुगल वल्लभ-तनुज गावत श्रुति गुन-गाथ ।१३ भक्त्त सर्वस्व १