पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४१०

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सिद्धार्थक भद्रभट इत्यादि लोग महाराज चंद्रश्री को छोड़कर जलद नील तन जयति जय, केशव केशी काल । मलयकेतु से मिल गए तो क्या कुकवियों के नाटक की जयति सृजन जन दृष्टि ससि, चंद्रगुप्त नरपाल ।। भांति इसके मुख में ओर तथा निवर्हण में और बात चयति आर्य चाणक्य की नीति सहज बल-भौन । बिनही साजे सैन नित. जीतत अरि कुल जौन ।। सिद्धा.- वयस्य ! सुनो, जैसे देव की गति नहीं चलो, आज पुराने मित्र समिद्धार्थक से भेंट करें । जानी जाती वैसे ही आर्य चाणक्य की जिस नीति की भी (घूमकर) अरे ! मित्र समिद्वार्थक आप ही इधर आता गति नहीं जानी जाती उसको नमस्कार है ? समि.-हाँ। कहो, तब क्या हुआ ? (समिद्धार्थक आता है) सिद्धा.-तब इधर से सब सामग्री लेकर आर्य समिद्धार्थक- चाणक्य बाहर निकले और विपक्ष के शेष राजाओं को मिटत ताप नहिं पान सों, हात उछाह बिनास । नि:शेष करके बर्बर लोगों की सब सामग्री लूट ली । बिना मीत के सुख सबै औरहु करत उदास ।। समि.-तो वह सब अब कहाँ है? | सुना है कि मलयकेतु के कटक से मित्र सिद्धार्थक आ सिद्धा. वह देखो। गया है । उसी को खोजने को हम भी निकले हैं कि स्रवत गंडमद गरब गज, नदत मेघ अनुहार । मिले तो बड़ा आनन्द हो । (आगे बढ़कर) अहा ! चाबुक भय चितवत चपल, खड़े अस्व बहु द्वार !। सिद्धार्थक तो यही है। कहो मित्र! अच्छे तो हो? समि.-- अच्छा, यह सब जाने दो । यह कहो सिद्धा.-- अहा ! मित्र समिद्धार्थक आप ही आ कि सब लोगों के सामने इतना अनादर पाकर फिर भी गए । (बढ़कर) कहो मित्र ! क्षेम कुशल तो है ? आर्य चाणक्य उसी मंत्री के काम को क्यों करते हैं, (दोनों गले से मिलते हैं) सिद्धा.-मित्र । तुम अब तक निरे सीधे साधे समि.-भला ! यहाँ कुशल कहाँ कि तुम्हारे बने हो। अरे, अमात्य राक्षस भी आर्य चाणक्य की ऐसा मित्र बहुत दिन पीछे घर भी आया तो बिना मिले जिन चालों को नहीं समझ सकते उनको हम तुम क्या फिर चला गया ! समझेगे! सिद्धा.-मित्र ! क्षमा करो । मुझको देखते ही समि.-- वयस्य । अमात्य राक्षस अब कहाँ आर्य चाणक्य ने आज्ञा दी कि इस प्रिय वृत्तांत को अभी । है ? चंद्रमा सदस प्रकाशित शोभावाले परम प्रिय महाराज सिद्धा.- उस प्रलय कोलाहल के बढ़ने के प्रियदर्शन से जाकर कहो । मैं उसी समय महाराज के समय मलयकेतु की सेना से निकलकर उंदुर नामक पास चला गया और उनसे निवेदन करके यह सब चर के साथ कुसुमपुर ही की ओर वह आते हैं, यह आर्य पुरस्कार पाकर तुमसे मिलने को तुम्हारे घर अभी जाता चाणक्य को समाचार मिला है। ही था । समि.--मित्र ! नंदराज्य के फिर स्थापना की समि. -मित्र ! जो सुनने के योग्य हो तो | प्रतिज्ञा करके स्वनामतुल्य-पराक्रम अमात्य राक्षस, महाराज प्रियदर्शन से जो प्रिय वृत्तांत कहा है वह हम उस काम को पूरा किए बिना फिर कैसे कुसुमपुर आते भी सुने । सिद्धा.- मित्र! तुमसे भी कोई बात छिपी है ! सिखा.- हम सोचते हैं कि चंदनदास के स्नेह सुनो ! आर्य चाणक्य की नीति से मोहित मति होकर | से । उस नष्ट मलयकेतु ने राक्षस को दूर कर दिया और समिर-ठीक है, चंदनदास के स्नेह ही से । चित्रवादिक पाँचों प्रबल राजों को मरवा डाला । यह किंतु तुम सोचते हो कि चंदनदास के प्राण बचेंगे? देखते ही और सब राजे अपने प्राण और राज्य का सिद्धा. .-कहां उस दीन के प्राण बचेंगे ? हमी संशय समझकर उसको छोड़कर सेना सहित अपने दोनों की वधस्थान में ले जाकर उसको मारना पड़ेगा। अपने देश चले गए । जब शत्रु ऐसी निर्बल अवस्था में समि.- (क्रोध से) क्या आर्य चाणक्य के पास हुआ. तो भद्रभट, पुरुषदत्त. हिंगुरात, बलगुप्त, कोई घातक नहीं है कि ऐसा नीच काम हम लोग करें ? राजसेन, भागुरायण, रोहिताक्ष, विजयवर्मा, इत्यादि सिद्धा. .- मित्र! ऐसा कौन है जिसको इस लोगों ने मलयकेतु को कैद कर लिया । जीवलोक में रहना हो और वह आर्य चाणक्य की आज्ञा समि.-मित्र ! लोग तो यह जानते हैं कि ' न माने ? चलो, हम लोग चांडाल का वेष बनाकर 17 भारतेन्दु समग्र ३६६