पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४१५

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हो गया, पर आपने ऐसे समय वह साहस अनुचित | जिस महात्मा ने- वह दुख सो सोचत सदा जागत रैन विहाय । राक्षस-मित्र चंदनवास ! उलाहना मत दो | मेरी मति अरु चंद्र की सैनहि बई चकाम ।। सभी स्वाथों है (नाडाल से) अजी ! तुम उस दुष्ट | (परदे से बाहर निकलकर) अजी अजी अमात्य राक्षस ! चाणक्य से कहो। मैं विष्णुगुप्त आपको दंडवत करता हूँ । (पैर छूता है) दोनों चांडाल-क्या कहें? राक्षस-आप ही आप) अब मुझे अमात्य राक्षस- कहना तो केवल मुंह चिढ़ाना है । (प्रगट) अली जिन कति में हु मित्र हित तन सम छोड़े प्रान । विष्णुगुप्त ! मैं चांडालों से छू गया है इससे मुझे मल जाके जस रवि सामुहे सिषि जस दीप समान ।। जाको अति निर्मल चरित, दया आदि नित जानि । चाणक्य-अमात्य राक्षस ! वह श्वपाक नहीं बौदह सब लज्जित भए, परम शुद्ध जेदि मानि वह आपका जाना-सुना सिद्धार्थक नामा राजपुरुष | ता पूजा के पात्र को मारत तू परि पाप । है; और दूसरा भी समिद्धार्थक नामा राजपुरुष ही हैं : जाके हित सो शत्रु तुव आयो हत मै आप ।। और इन्ही दोनों द्वारा विश्वास उत्पन्न करके उस दिन १चांडाल- अरे घेणुवेत्रक! तू चंदनदास को | शकटवास को धोखा देकर मैंने वह पत्र लिखवाया था । | पकड़कर इस मसान के पेड़ की छाया में बैठ, तब से राक्षस- (आप ही आप) आहा ! बहुत अच्छा मंत्री चाणक्य को मैं समाचार कि अमात्य राक्षस हुआ कि मेरा शकट दास पर से संदेह दूर हो गया । पकड़ा गया। चाणक्य-बहुत कहाँ तक कई- २चांडाल-अछारे वालोमक ! (चंदनवास, ये सब भद्रभटादि, यह सिद्धार्थक, यह लेस । | स्त्री. बालक और सूली को लेकर आता है) वह भदंत, वह भूषनहु, वह नदारत मेख ।। १ चांडाल-राक्षस को लेकर घूमकर) अरे यह दुख चंदनवास को जो कछू दियो दिखाय । यहाँ पर कौन है ? नंदकुल सेनासंचय के चूर्ण करने | सो सब मम (सज्जा से कुछ सकुचकर) | करने वाले वन से, वैसे ही मौर्यकुल में लक्ष्मी और सो सब राजा चंद्र को तुम सो मिलन उपाय ।। धर्म स्थापना करने वाले, आर्य चाणक्य से कहो - देखिये. यह राजा भी आप से मिलने आप ही आते हैं। राक्षस-(आप ही आप) हाय ! यह भी राक्षस राक्षस-(आप ही आप) अब क्या करें। को सुनना लिखा था! (प्रगट) हाँ ! मैं देख रहा हूँ। १चांडाल-कि आप की नीति ने जिसकी बुद्धि (सेषकों के संग राजा आता है। को घेर लिया है. वह अमात्य राक्षस पकड़ा गया । राजा-आप ही शाप) गुरुजी ने बिना युद्ध ही (परदे में सब शरीर द्विपाए केवल मुंह खोले चाणक्य दुर्जय शत्रु का कुल जीत लिया इसमे कोई संदेह नहीं । आता है) मैं तो बड़ा सज्जित हो रहा है. क्योंकि चाणक्य- अरे कहो, कहो । | हवै बिनु काम लजात करि नीचो मुख मार सोक । किन जिन बसननि मैं धरी कठिन अगिनि की जाल सोषत सदा निषग में मम बानन के थोक ।। | रोकी किन गति वायु की डोरिन ही के जाल ? सोवहि धनुष उतारि हम जदपि सकहिं जग जीति । किन गजपति मन प्रबल सिंह पीजरा दीन?जा गुरु के जागत सदा नीति निपुण गत भीति ।। | किन केवल निज बाहु वल पार समुद्रगति कीन (चाणक्य के पास जाकर) आर्य ! चंद्रगुप्त प्रणाम करता है। १ चांडाल-परमनीतिनिपुण आप ही ने तो । चाणक्य-अजी! ऐसा मत कहो, वरन चाणक्य-वृषल ! अब सबै असीस सच्ची "नदकुलदेषी देव ने" यह कहो । हुई इससे इन पूज्य अमात्य राक्षस को नमस्कार करो, राक्षस-(देखकर आप ही आप) अरे ! क्या यह तुम्हारे पिता के सथ मत्रियों में मुख्य है। यही दुरात्मा वा महात्मा कौटिल्य है। क्योंकि राक्षस-(आप ही आप) लगाया न इसने संबंध सागर जिमि बहु रत्नमय तिमि सब गुन की खानि । तोष होत नहिं देखि गुन भैरी छ निज जानि ।। राजा-राक्षस के पास जाकर) आर्य ! चंद्रगुप्त चाणक्य (देखकर) अरे! यही अमात्य प्रणाम करता है। राक्षस है राक्षस- (देखकर आप ही आप) अहा ! यही मुद्रा राक्षस ३७१