पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४१६

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1 चंद्रगुप्त (प्रकाश) इच्छा विष्णुगुप्त! मंगाओ खंग होनहार जाको उदय बालपने ही जोइ । "नमस्सर्वकार्य प्रतिपत्तिहेतवे सुहृत्स्नेहाय" देखो, राज लह्यौ जिन बाल गज जूथाधिप सम होइ ।। मैं उपस्थित हूँ। (प्रगट) महाराज! जय हो । चाणक्य- (राक्षस को खंग देकर हर्ष से) राजा-आर्य! राजन् वृषल ! वधाई है, बधाई है ! अब अमात्य राक्षस तुमरे आछत बहुरि गुरु जागत नीति प्रवीन । ने तुम पर अनुग्रह किया । अब तुम्हारी दिन दिन बढ़ती कहहु कहा या जगत में जाहि न जय हम कीन ।। ही है । राक्षस-(आप ही आप) देखो, यह चाणक्य राजा- यह सब आपकी कृपा का फल है । का सिखाया पढ़ाया मुझसे कैसी सेवकों की सी बात (पुरुष आता है) करता है ! नहीं नहीं, यह आप ही विनीत है । अहा! पुरुष-जय हो महाराज की, जय हो । देखो, चंद्रगुप्त पर डाह के बदले उलटा अनुराग होता महाराज ! भद्रभटभागुरायणादिक मलयकेतु को हाथ है। चाणक्य सब स्थान पर यशस्वी है, क्योंकि पैर बाँधकर लाए हैं और द्वार पर खड़े हैं। इसमें पाइ स्वामि सतपात्र जो मंत्री मूरख होइ । महाराज की क्या आजा होती है? तौह पावै लाभ जस, इत तौ पंडित दोइ ।। चाणक्य- हाँ, सुना । अनी ! अमात्य राक्षस मूरख स्वामी लहि गिरै चतुर सचिव हू हारि । से निवेदन करो, अब सब काम वही करेंगे। नदी तीर तरु जिमि नसत जीरन है लहि राक्षस- (आप ही आप) कैसे अपने वश में चाणक्य-क्यों अमात्य राक्षस! आप क्या करके मुझी से कहलाता है । क्या करें ? (प्रकाश) चंदनदास के प्राण बचाया चाहते हैं। महाराज, चंद्रगुप्त ! यह तो आप जानते हैं कि हम राक्षस-इसमें क्या संदेह है? लोगों का मलयकेतु का कुछ दिन तक संबध रहा है। चाणक्य-पर अमात्य ! आप शस्त्र ग्रहण इससे उसका प्राण तो बचाना ही चाहिए । नहीं करते, इससे संदेह होता है कि आपने अभी राजा (राजा चाणक्य का मुंह देखता है) पर अनुग्रह नहीं किया, इससे जो सच ही चंदनदास के चाणक्य-महाराज । अमात्य राक्षस की प्राण बचाया चाहते हो तो यह शस्त्र लीजिए । पहिली बात तो सर्वथा माननी ही चाहिए । (पुरुष से) राक्षस-सुनो विष्णुगुप्त ! ऐसा कभी नहीं हो | अजी ! तुम भद्रभटादिकों से कह दो कि "अमात्य सकता, क्योंकि हम उस योग्य नहीं, विशेष करके जब राक्षस के कहने से महाराज चंद्रगुप्त मलयकेतु को तक तुम शस्त्र ग्रहण किए हो तब तक हमारे शस्त्र उसके पिता का राज्य देते हैं" इससे तुम लोग संग ग्रहण करने का क्या काम है? जाकर उसको राज पर बिठा आओ । चाणक्य-भला अमात्य ! आपने यह कहाँ से पुरुष-जो आज्ञा । निकाला कि हम योग्य हैं और आप अयोग्य हैं ? चाणक्य-अजी अभी ठहरो, सुनो ! दुर्गपाल क्योंकि देखिए विजयवाल से यह कह दो कि अमात्य राक्षस के शस्त्र रहत लगामहिं कसे अश्व की पीठ न छोड़त । ग्रहण से प्रसन्न होकर महाराज चंद्रगुप्त यह आज्ञा खान पान असनान भोग तजि मुख नहिं मोड़त ।। करते हैं कि "चंदनदास क सब नगरों का जगतसेठ छूटे सब सुख साज नींद नहीं आवत नयनन । करो।" निसि दिन चौंकत रहत वीर सब भय धरि निज मन ।। पुरुष-जो आज्ञा । वह हौदन सौं सब छन कस्यौ नृप गजगन अवरेखिए । चाणक्य-चंद्रगुप्त ! अब और मैं क्या रिपुदर्प दूर कर अति प्रबल निज महात्मबल देखिए ।। तुम्हारा प्रिय करूं? वा इन बातों से क्या ! आपके शस्त्र ग्रहण किए बिना राजा--- इससे बढ़कर और क्या भला होगा? तो चंदनदास बचता भी नहीं । मैत्री राक्षस सों भई, मिल्यो अकंटक राज । राक्षस--(आप ही आप) नंद नसे सब अब कहा यासों बढि सुख साज ।। नंद नेह छूट्यो नहीं दास भए अरि साथ । चाणक्य- (प्रतिहारी से) विजये ! दुर्गपाल ते तरू कैसे काटि है जे पाले निज हाथ ।। विजयपाल से कहो कि 'अमात्य राक्षस के मेल से कैसे करिहैं मित्र पैं हम निज कर सों घात । प्रसन्न होकर महाराज चंद्रगुप्त आज्ञा करते हैं कि अहो भाग्य गति अति प्रवल मोहिं कछु जानि न जान।। हाथी, घोड़ों को छोड़कर और सब बंधुओं का बंधन भारतेन्दु समग्र ३७२ (जाता है)