पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४१७

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छोड़ दो' वा जब अमात्य राक्षस मंत्री हुए तब अब हाथी तीन्हैं दुर्ग बिदेस मनो घर है । घोड़ों का क्या सोच है ? इससे - जिन मित्रता राखी है लायक सों छोड़ो सब गज तुरग अब कछु मत राखौ बाँधि । तिनकों तिनकाहू महा सर है । केवल हम बांधत सिखा निज परतिज्ञा साधि ।। जिनकी परतिज्ञा टरै न कबौं (शिखा बांधता है) तिनकी जय ही सब ही थर है ।। प्रतिहारी-जो आज्ञा । (जाती है) (पहले अंक की समाप्ति और दूसरे अंक के प्रारंभ में) चाणक्य-अमात्य राक्षस! मै इससे बढ़कर जग मैं घर की फूट बुरी । और कुछ भी आपका प्रिय कर सकता हूँ? घर के फूटहि सों बिनसाई सुबरन लंकपुरी ।। राक्षस- इससे बढ़कर और हमारा क्या प्रिय | फूटहि सों सब कौरव नासे भारत युद्ध भयो । होगा ? पर जो इतने पर भी संतोय न हो तो यह जाको घाटो या भारत में अबलौं नहिं पुजयो ।। आशीर्वाद सत्य हो- फूटहि सों जयचंद बुलायो जवनन भारत धाम । "वाराहीमात्मयोनेस्तनुमतनुबलामास्थितस्यानुरूपा जाको फल अबलौं भोगत सब आरज होइ गुलाम ।। यस्य प्राग्दन्तकोटिम्प्रलयपरिगता शिनिये भूतधात्री । फूटहि सों नव नंद बिनासे गयो मगध को राज । म्लेच्छै रुद्वेज्यमाना भुजयुगमधुना पीवर राजमूर्ते : | चंद्रगुप्त को नासन चहयो आपु नसे यह साज ।। स श्रीमद्वन्धुभृत्यश्चिरमवतु महोम्यार्थिवश्चंद्रगुप्त :।।"१ जो जग मैं धन मान और बल अपुनो राखन होय । (सब जाते हैं तो अपने घर मैं भूलेहू फूट करौ मति कोय ।। (दसरे अंक की समाप्ति और तीसरे अंक के आरंभ में) जग में तेई चतुर कहावै । उपसंहार- (क) जे सब बिधि अपने कारज को नीकी भांति बनावै ।। पढ़यौ लिख्यौ किन होइ जुपै नहिं कारज साधन जाने। इस नाटक में आदि, अंत तथा अकों के विश्रामस्थल में रंगशाला में ये गीत गाने चाहिएँ । ताही को मूरख या जग मैं सब कोउ अनुमानै ।। छल मैं पातक होत जदपि यह शास्त्रन मैं बहु गायो । यथा- सबके पूर्व मनलाचरण में । पै अरि सों छल किए दोष नहिं मुनिजन यहै बतायो ।। (तीसरे अंक की समाप्ति और चौथे अंक के आरंभ में) (ध्रुवपद चौताला) जय जय जगदीश राम, श्याम धाम पूर्ण काम, आनंदघन ब्रहम सल चितसुखकारी । तिनको न कछ कबहूँ बिगरै, कंस रावनादि काल सतत प्रनत भक्त पाल, गुरु लोगन को कहनो जे करें। सोभित गल मुक्तमाल, दीनतापहारी ।। जिनको गुरु पंथ दिखावत है प्रभभरन पापहरन, असरन जन सरन चरन, ते कुपंथ पैं भूलि न पाँव धरै ।। सुखहि करन दुखहि हरन, वृंदावनचारी। जिनको गुरु रच्छत आप रहै रमावास जगनिवास, राम रमन समनत्रास, ते बिगारे न वैरिन के बिगरै विनवत 'हरिचंद' दास. जयजय गिरधारी ।। गुरु को उपदेश सुनौ सब ही, (प्रस्तावना के अंत में प्रथम अंक के आरम्भ में । चाल जग कारज जासों सबै सँभरै ।। लखनऊ की ठुमरी 'शाहजादे आलम तेरे लिये इस (चौथे अंक की समाप्ति और पाँचवें अंक के आरंभ में) चाल की) परबी जिनके हितकारक पंडित हैं तिनको कहा सत्रुन को डर है। करि मूरख मित्र मिताई, फिर पछितैहौ रे भाई । समुभै जग मैं सब नीतिन्ह जो अंत दगाखैही सिर धुनिहौ रहि हो सबै गँवाई ।। ठुमरी १. महाबली वाराह शरीरधारी स्वयं श्रीविष्णु, जिनके दृष्टांग पर प्रलय में निमग्ना पृथ्वी ठहरी हुई थी, तथा बड़े भाई का अनुयायी ऐश्वर्यशाली राजा चंद्रगुप्त बहुत दिनों तक पृथ्वी की रक्षा करते रहे, जिस राजमूर्ति की दोनों दृढ़ भुजाओं में म्लेच्छों से उत्पीड़ित होकर वह आश्रय पा रही है। मुद्रा राक्षस ३७३