पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४१८

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(कलिंगड़ा) लहौ सुन सब बिधि भारतवासी । विद्या कला जगत को सीखौ तजि आलस की फाँसी ।। अपनो देश धरम कुल समुझहु छोड़ि वृत्ति निज दासी । उद्यम करिकै होहु एकमति निज बल बुद्धि प्रकासी ।। पंचपीर की भगति छोड़ि कै ह्वै हरिचरन उपासी । जग के और नरन सम येऊ होउ सबै गुनरासी ।। मूरख जो कछु हितहु करे तो तामैं अंत बुराई । उलटो उलटो काज करत सब दैहै अंत नसाई ।। लाख करी हित मूरख सों पै ताहि न कछु समुझाई । अत बुराई सिर पैं ऐहै रहि जैहो मुंह बाई ।। फिर पछितैहौ रे भाई ।। (पाँचवें अंक की समाप्ति और छठे अंक के आरंभ में) काफी ताल होली का छलियन सों रहो सावधान नहिं तो पछताओगे । इनकी बात मैं फैसि रहिही सबहि गँवाओगे ।। स्वारथ लोभी जन सों आखिर दगा उठाओगे । तब सुख पैहो जब साँचन सों नेह बढ़ाओगे ।। छलियन सों. ।। (छठे अंक की समाप्ति और सातवें अंक के आरंभ में) ('जिनके मन में सिय राम बसें' इस धुन की) जग सूरज चंद टरै तो टरै पै न सजन नेहु कबौं विचलै । धन संपति सर्बस गेह नसौ नहिं प्रेम की मेड़ सो एड़ टले ।। सतवादिन को तिनका सम प्रान रहै तो रहै वा ढलै तो ढलै । निज मीत की प्रीत प्रतीत रही इक और सबै जग जाउ भलै ।। (अंत में गाने को डविहाग - श्लोक के अर्थ के अनुसार) हौर हरि रूप सबै जग बाधा । जा सरूप सों धरनि उधारी निज जन कारज साधा ।। जिमि जब दाढ़ अंग्न लै राखी महि असुर गिरायो । कनक दृष्टि म्लेच्छन हूँ तिमि किन अब लौ मारि नसायो।। आरज राज रूप तुम तासों माँगत यह बरदाना । प्रजा कुमुदगन चंद्रनृपति को करहु सकुल कल्याना ।। (बिहाग ठुमरी) पूरी अमी की कटोरिया सी चिरजीओ सदा विकटोरिया रानी । सूरज चंद प्रकास कर जब लौं रहै सात हू सिंधु मैं पानी ।। राज करौ सुख सों तब लौं निज पुत्र औ पौत्र समेत सयानी । पालौ प्रजागन को सुख सो जग कीरति मान करै गुन गानी ।। उपसंहार- (ख) इस नाटक के विषय में बिलसन साहिब लिखते हैं कि यह नाटक और नाटकों से अति विचित्र है. क्योंकि इसमें सपूर्ण राजनीति के व्यवहारों का वर्णन है। चंद्रगुप्त (जो यूनानी लोगों का सैंद्रोकोत्तस sandrocottus है) और पाटलिपुत्र (जो यूरप की पालीबोत्तरा Palibothra है) के वर्णन का ऐतिहासिक नाटक होने के कारण यह विशेष दृष्टि देने के योग्य है । इस नाटक का कवि विशाखदत्त, महाराज पृथु का पुत्र और सामंत बटेश्वरदत्त का पौत्र था । इस लिखने से अनुमान होता है कि दिल्ली के अंतिम हिंदू राजा पृथ्वीराज चौहान ही का पुत्र विशाखदत्त है, क्योंकि अंतिम श्लोक से विदेशी शत्रु की जय की ध्वनि पाई जाती है, भेद इतना ही है कि रायसे में पृथ्वीराज के पिता का नाम सोमेश्वर और दादा का आनंद लिखा है । मैं यह अनुमान करता हूँ कि सामन्त बटेश्वर इतने बड़े नाम । कोई शीघ्रता में या लघु करके कहे तो सोमेश्वर हो सकता है और संभव है कि चंद ने भाषा में सामंत बटेश्वर को ही सोमेश्वर लिखा हो । मेजर विल्फर्ड ने मुद्राराक्षस के कवि का राम गोदावरी तीर निवासी अनंत लिखा है, किंतु वह केवल भ्रममात्र है । जितनी प्राचीन पुस्तकें उत्तर वा दक्षिण में मिलीं, किसी में अनंत का नाम नहीं मिला है। इस नाटक पर बटेश्वर मैथिल पंडित की एक टीका भी है । कहते हैं कि गुहसेन नामक किसी अपर पंडित की भी एक टीका है, किंतु देखने में नहीं आई। महाराज तंजौर के पुस्तकालय में व्यासराज यज्वा की एक टीका और है। चंद्रगुप्त की कथा विष्णुपुराण, भागवत और पुराणों में और वृहत्कथा में वर्णित है । कहते हैं कि १. प्रियदर्शी-प्रियदर्शन, चंद्र, चंद्रगुप्त, श्रीचंद्र, चंद्रश्री. मौर्य यह सब चंद्रगुप्त के नाम हैं, और चाणक्य, विष्णुगुप्त, द्रोमिल या द्रोहिण, अशुल, कौटिल्य यह सब चाणक्य के नाम हैं। AK भारतेन्दु समग्र ३७४