पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४२५

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d पराजय से उदास होकर तप करने लगे और | इन्द्रादिक देवता भी दूसरे बनाने चाहे तब देवता लोग। महादेव जी से वरदान में सम अस्त्र पाकर फिर डर कर इनसे क्षमा मागने गए । इन्होंने अपनी बनाई वृशिष्ठ से लड़ने आए । वशिष्ठ ने मंत्र के वल सृष्टि स्थिर रखकर और दक्षिणाकाश में त्रिशंकु को ग्रह है से एक ऐसे ब्रहम दंड खड़ा कर दिया कि विश्वामित्र की भाँति प्रकाशमान स्थिर रखकर क्षमा किया । यह के सब अस्त्र निष्फल हुए । हार कर विश्वामित्र | सय भी रामायण ही में है। फिर एक बेर पानी नहीं ने सोचा कि अब तप कर के ब्राह्मण होना चाहिए बरसा इससे बड़ा काल पड़ा । विश्वामित्र एक चांडाल और तप कर के अंत में ब्राह्मण और ब्रहर्षि के धर भीख मांगने गए और जब कुत्ते का मांस पाया तो हो गए । यह बाल्मीकीय रामायण के आयोध्या कांड के उसी से देवताओं को बलि दिया । देवता लोग इन के ५२ से ३०सर्ग तक सविस्तार वर्णित है। भय से कांप गए और इन्द्र ने उसी समय पानी जव हरिश्चंग के पिता त्रिशंकु ने इसी शरीर से स्वर्ग बरसाया । यह प्रसंग महाभारत के शांति पर्ण के १४१ जाने के हेतु वशिष्ठ जी से कहा तो उन्होंने उत्तर दिया अध्याय में है। फिर हरिश्चन्द्र की विपत्ति सुनकर कि यह आक्य काम हम से न होगा । तप त्रिशंकु कोष से वशिष्ठ जी ने उनको शाप दिया कि तुम बकुला वशिष्ठ के सौ पुत्रों के पास गया और जब । उन से भी हो जाओ और विश्वामित्र ने यह सुनकर वशिष्ठ को कोरा जवाब पाया तब कहा कि तुम्हारे पिता और तुम शाप दिया कि तुम आड़ी हो जाओ । पक्षी बनकर दोनों लोगों ने हमारी इच्छा पूरी नहीं किया और हम को कोरा | ने बड़ा घोर युद्ध किया जिससे त्रैलोक्य काप गया । जवाब दिया इससे अब इम दूसरा पुरोहित करते है। अन्त में ब्रह्मा ने दोनों से मेल कराया । यह उपाख्यान वशिष्ठ के पुत्रों ने इस बात से रुष्ट होकर त्रिशकु को मारकंडेय पुरान के नये अध्याय में है । इनकी उत्पत्ति शाप दिया कि तू चांडाल होजा । विचारा निशंक यों है । भूगु ने जब अपने पुत्र च्यवन ऋषि को ध्याह चाडाल बन कर विश्वामित्र के पास गया और दुखी | किये देखा तो बड़े प्रसन्न हुए और बेटा बहु देखने को होकर अपना मा हात वर्णन किया । विश्वामित्र ने | उनके घर आए । उन दोनों ने पिता की पूजा किया अपने पुराने पैर का बदला लेने का अच्छा अवसर | और हाथ जोड़ कर सामने खड़े हो गए । भृगु ने सोचकर राजा से प्रतिज्ञा किया कि इसी देह से तुम को बहू से कहा कि बेटी बर मांग । सत्यवती ने यह स्वर्ग भेजेंगे और सब मुनियों को बुलाकर यज्ञ करना वर मागा कि मुझे तो बेद शास्त्र जानने वाला और नाहा । सब मृषि तो आए पर वशिष्ठ के सौ पुत्र नहीं | मेरी माता को युद्ध विद्या विशारद पुत्र हो । भूगु आए और कहा कि जहाँ चाडात यजमान और क्षत्रिय ने एवमस्तु कह कर ध्यान से प्राणायाम किया पुरोहित वहाँ कौन जाय । क्रोधी विश्वामित्र ने इस बात और उनके श्वास से दो चरु उत्पन्न हुए भगु ने यह बहू से रुष्ट होकर शाप से वशिष्ठ के उन सौ पुत्रों को भस्म को देकर कहा कि यह लाल चरू तो तुम्हारी माला प्रति कर दिया । यह देखकर और विचारे ऋषि मारे डर के ऋतु समय में अश्वत्थ का आलिंगन करके खाय और यज्ञ करने लगे । जब मंत्रों से बुलाने से देवता लोग यज्ञ तुन यह सफेद चरु उसी भांति उदुम्बर का आशिगन भाग लेने न आए तो विश्वामित्र ने क्रोध से ऋण करके खाना । भृगु के वाक्यानुसार सत्यवती ने कनोज उठाकर कहा कि त्रिशंक यज्ञ से कुछ काम नहीं तुम के राजा गाधि की स्त्री अपनी माता से कहा । उसकी हमारे तपोबल से स्वर्ग जाओ । त्रिशंकु इतना कहते ही माता ने यह समझकर कि ऋषि ने अपनी पत्तोड़ को आकाश की ओर उड़ा । जब इन्द्र ने देखा कि त्रिशंकु अच्छा बालक होने का चरू दिया होगा जब ऋतु काल सशरीर स्वर्ग में आना चाहता है तो पुकारा कि अरे तू आया तब लाल चरु तो कन्या को खिलाया और सफेद यहां आने के योग्य नहीं है नीचे गिर । त्रिशंकु यह आप खाया । भगवान भूगु ने तपोबल से जब यह बात सुनते ही उलटा होकर नीचे गिरा और विश्वामित्र से जानी तो आकर बहू से कहा कि तुमने चरु को उलट पुलट किया इससे तुम्हारा लड़का ब्राहमण | त्राहि वाहि पुकारा । विश्वामित्र ने तप अल से उसको होकर भी क्षत्रिय कम होगा और तुम्हारा भाई दत्रिय वहा बीच ही में स्थिर रखा । कर्मनाशा नामक नदी विशंकु के ही लार सो पनी है । फिर देवताओं पर क्रोध होकर भी ब्राह्मण हो जायगा सत्यवती ने जब ससुर से अपराध की क्षमा चाही तब उन्होंने कहा कि अच्छा करके विश्वामित्र ने सृष्टि हो दूसरी करनी चाही दक्षिण ध्रुव के समीप सप्तर्षि और नक्षत्र इन्होंने नए | तुम्हारे पुत्र के बदले पौत्र क्षत्रिय का होगा वाठी राजा बनाए और बहुत से जीव जंतु फल मूल बनाकर जब गाधि को विश्वामित्र हुए और व्यपन को वमदग्नि और १. श्रीसी जाति का गिदा सत्य हरिश्चन्द्र ३५१