पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४२७

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प्रथम अंक जरा इधर तो भोजना । सू.- जो गुन नृप हरिचन्द मैं जगहित सुनियत (नेपथ्य में से - मैं तो आप ही आती थी कहती हुई कान । नटी आती है) सो सब कवि हरिचन्द मैं लखहु प्रतच्छ सुजान।।४।। न.-मैं तो आप ही आती थी। वह एक (नेपथ्य में) अरे! मनिहारिन आ गई थी उसी के बखेड़े में लग गई. नहीं यहा' सत्यभय एक के कापत सब सुर लोक । तो अब तक कभी की आ चुकी होती । कहिए आज जो यह दूजो हरिचन्द को करन इन्द्रउर सोक ।।२।। लीला करनी हो वह पहिले ही से जानी रहै तो मैं और सभी से कह के सावधान कर दूं। सु.- (सुनकर और नेपथ्य की ओर देख कर) यह देखो! हम लोगों को बात करते देर न हुई कि सू.- आज का नाटक तो हमने तुम्हारी हो मोहना इन्द्र बन कर आ पहुंचा । तो अब चलो हम प्रसन्नता पर छोड़ दिया है। लोग भी तैयार हो । न.- हम लोगों को तो सत्य हरिश्चन्द्र आज (दोनों जाते हैं) कल अच्छी तरह याद है और उसका खेल भी सब छोटे इति प्रस्तावना बड़े को मज रहा है। सू.- ठीक है यही हो । भला इससे अच्छा और कौन नाटक होगा । एक तो इन लोगों ने उसे अभी देखा नहीं है, दूसरे आख्यान भी करुणा पूर्ण राजा हरिश्चन्द्र का है, तीसरे उसका कवि भी हम लोगों का एक मात्र जवनिका उठती है जीवन है। (स्थान इन्द्रसभा, बीच में गद्दी तकिया धरा हुआ, घर न.- (लंबी सांस लेकर) हा! प्यारे हरिश्चन्द्र सजा हुआ) का संसार ने कुछ भी गुण रूप न समझा । क्या हुआ । (इन्द्र आता है) कहेंगे सबै ही नैन नीर भरि भरि पाछे प्यारे हरिश्चंद इ.- ('यहाँ सत्यभय एक के' यह दोहा फिर से की कहानी रहिजायगी ।।२।। पढ़ता हुआ इधर उधर घूमता है) (द्वारगल आता है) सू.- इसमें क्या सन्देह है । काशी के पंडितों बा. महाराज! नारद जी आते हैं। ही ने कहा है ।। इ.-आने दो अच्छे अवसर पर आए । सब सज्जन के मान को कारन इक हरिचंद । द्वा.- जो आज्ञा । (जाता है) जिमि सुभाव दिन रैन के कारन नित इ.- (आप ही आप) नारद जी सारी पृथ्वी पर हरिचंदार ।।३।३ इधर उधर फिरा करते हैं इनसे सब बातों का पक्का और फिर उनके मित्र पंडित शीतला पता लगेगा । हमने माना कि राजा हरिश्चन्द्र को स्वर्ग प्रसाद जी ने इस नाटक के नायक से लेने की इच्छा न हो तथापि उस के धर्म की एक बेर उनकी समता भी किया है इससे उनके परीक्षा तो लेनी चाहिए । बनाए नाटकों में भी सत्य हरिश्चन्द्र हो (नारदजी ७ आते हैं) आज खेलने को जी चाहता है ।। इ.- (हाथ जोड़कर दंडवत करता है) न.- कैसी समता मैं भी सुनू । आइए आइए धन्य भाग्य, आज किधर भूल पड़। १ महाराष्ट्री भेष, कमर पर पेटी कसे, वा मर्दाना कपड़ा पहिने, पर जेवर सब जनाने । २. हरि-सूर्य । ३. "विद्वज्जनप्रतिष्ठा कारणमेवं हरिश्चन्द्र : यवत स्वभावगत्वादिन रात्योर्वा हरिश्चन्द्र :" । ४. "श्रूयन्ते ये हरिश्चन्द्रे जगदाल्हादिनो गुणा । दृश्यन्ते हरिश्चन्द्रे चन्द्रवत प्रियदर्शने ।।" ५. जामा, क्रीट, कुण्डल और गहने पहने हुए, हाथ में ब्रज कई फल का छोटा भाला लिए हुए। ६. छज्जेदार पगड़ी, चमकन, घेरदार पाजामा पहने कमरबन्द कसे और हाथ में असा लिये हुए । ७. धोती की लांग कसे, गाती बाँधे, सिर से पांव तक चंदन का और दिए, पैर में घुघुरू, सिर के बाल छुट, और हाथ में बीन लिए हुए । आने और जाने के समय 'राम कृष्ण गोविन्द' की ध्वनि नेपथ्य में से हो । सत्य हरिश्चन्द्र ३८३