पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४२८

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ना.- हमें और भी कोई काम है, केवल यहां से ना.-- क्यों नहीं, बड़ाई उसी का नाम है जिसे वहां और वहां से यहां-यही हमें है कि और भी छोटे बड़े सब माने, और फिर नाम भी तो उसी का रह कुछ। जायगा जो ऐसा दृढ़ होकर धर्म साधन करेगा । (आप इ.-साधु स्वभाव ही से परोपकारी होते हैं। ही आप) और उसकी बड़ाई का यह भी तो एक बड़ा विशेष कर के आप ऐसे जो हमारे से दीन गृहस्थों को प्रमाण है कि आप ऐसे लोग उससे बुरा मानते हैं घर बैठे दर्शन देते हैं । क्योंकि जो लोग गृहस्थ और क्योंकि जिससे बड़े-२ लोग डाह करें पर उसका कुछ काम काजी हैं वे स्वभाव ही से गृहस्थी के बन्धनों से | बिगाड़ न सकें यह निस्संदेह बहुत बड़ा मनुष्य है । ऐसे जकड़ जाते हैं कि साधु संगम तो उनको सपने में इ. भला उसके गृह चरित्र कैसे हैं। भी दुर्लभ हो जाता है, न वे अपने प्रबन्धों से ना.-दूसरों के लिए उदाहरण बनाने के छुट्टी पावेंगे न कहीं जायगे । योग्य । भला पहिले जिसने अपने निज के और अपने ना.-आप को इतनी शिष्टाचार नहीं सोहती। धर के चरित्र ही नहीं शुद्ध किये हैं उसकी और बातों पर आप देवराज हैं और आप के संग की तो बड़े बड़े ऋषि मुनि इच्छा करते हैं फिर आप को सतसंग कौन दुर्लभ क्या विश्वास हो सकता है । शरीर में चरित्र ही मुख्य है ! केवल जैसा राजा लोगों में एक सहज मुह देखा | वस्तु है । बचन से उपदेशक और त्रियादिक से कैसा व्यापार होता है वैसी ही बाते आप इस समय कर रहे नहीं है तो लोगों में वह टकसाल न समझा जायगा और भी धर्मनिष्ठ क्यों न हो पर यदि उसके चरित्र शुद्ध इ.- हम को बड़ा शोच है कि आप ने हमारी उसकी बातें प्रमाण न होंगी ! महात्मा और दुरात्मा में बातों को शिष्टाचार समझा । क्षमा कीजिए आप से हम इतना ही भेद है कि उनके मन बचन और कर्म एक बनावट नहीं कर सकते । भला बिराजिये तो सही यह रहते हैं, इनके भिन्न । निस्संदेह हरिश्चन्द्र महाशय बातें तो होती ही रहेगी। है। उसके आशय बहुत उदार है इसमें कोई संदेह ना.-बिराजिये (दोनों बैठते हैं)। नहीं। इ.-कहिए इस समय कहां से आना हुआ । इ.-भला आप उदार वा महाशय किसको कहते ना.- अध्योध्या से । अहा ! राजा हरिश्चन्द्र 'ना.-जिसका भीतर बाहर एक सा हो और धन्य है । मैं तो उसके निष्कपट अकृत्रिम स्वभाव से विद्यानुरागिता उपकार प्रियता आदि गुण जिसमें सहज बहुत ही संतुष्ट हुआ । यद्यपि इसी सूर्यकुल में अनेक हो । अधिकार में क्षमा, विपत्ति में धैर्य, सम्पत्ति में बड़े-२ धार्मिक हुए पर हरिश्चन्द्र तो हरिश्चन्द्र ही है । अनभिमान, और युद्ध में जिसको स्थिरता है वह ईश्वर इ.- (आप ही आप) यह भी तो उसी का गुण | की सृष्टि का रत्न है और उसी की माता पुत्रवती है । हरिश्चन्द्र में ये सब बातें सहज हैं । दान करके उसको ना. महाराज । सत्य की तो मानो हरिश्चन्द्र प्रसन्नता होती है और कितना भी दे पर संतोष नहीं मूर्ति है । निस्सन्देह ऐसे मनुष्यों के उत्पन्न होने से होता, यही समझता है कि अभी थोड़ा दिया । भारत भूमि का सिर केवल इनके स्मरण से उस समय इ.- (आपही आप) हृदय ! पत्थर के होकर तुम भी ऊंचा रहेगा जब यह पराधीन होकर हीनावस्था को यह सब कान खोल के सुनो । प्राप्त होगी इ.- (आपही आप) अहा ! हृदय भी ईश्वर ने ना.- और इन गुणों पर ईश्वर की निश्चला क्या ही वस्तु बनाई है । यद्यपि इसका स्वभाव सहज भक्ति उसमें ऐसी है जो सब का भूषण है क्योंकि उसके ही गुणग्राही हो तथापि दूसरों की उत्कट कीर्ति से इसमें | बिना किसी की शोभा नहीं । फिर इन सब बातों पर ईर्ष्या होती ही है, उसमें भी जो जितने बड़े हैं उनकी | विशेषता यह है कि राज्य का प्रबन्ध ऐसा उत्तम और ईर्ष्या भी उतनी ही बड़ी है। हमारे ऐसे बड़े | दृढ़ है कि लोगों को संदेह होता है कि इन्हें राज काज पदाधिकारियों को शत्रु उतना संताप नहीं देते जितना देखने की छुट्टी कब मिलती है । सच है छोटे जी के लोग दूसरों की सम्पत्ति और कीर्ति । थोड़ो ही कामों में ऐसे घबड़ा जाते हैं मानो सारे संसार ना.-अप क्या सोच रहे है का बोझ इन्हीं पर है ; पर जो बड़े लोग हैं उनके सब इ.-कुछ नहीं । योही मैं यही सोचता था कि काम महारम्भ होते हैं तब भी उनके मुख पर कहीं से हरिश्चन्द्र की कीर्ति आजकल छोटे बड़े सबके मुंह से व्याकुलता नहीं झलकती, क्योंकि एक तो उनके उदार सुनाई पड़ती है इससे निश्चय होता है कि नहीं चित्त में धैर्य और अवकाश बहुत है, दूसरे उनके समय हरिश्चन्द्र निस्संदेह बड़ा मनुव्य व्यर्थ नहीं जाते और ऐसे यथायोग्य बंटे रहते हैं जिससे गाते हैं। 1 1 AM भारतेन्दु समग्र ३८४