पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४२९

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देखेंगे न । उन पर कभी भीड़ पड़ती ही नहीं । और सहज व्योहार हैं वे क्या यश वा स्वर्ग की लालच इ.-भला महाराज वह ऐसे दानी है। तो उनकी से धर्म करते हैं । वे तो आपके स्वर्ग को सहज में लक्ष्मी कैसे स्थिर है। दसरे को दे सकते हैं । और जिन लोगों को भगवान के ना.- यही तो हम कहते हैं। निस्संदेह वह चरणारविंद में भक्ति है वे क्या किसी कामना से राजा कुल का कलंक है जिसने बिना पात्र बिचारे दान धर्माचरण करते हैं, यह भी तो एक क्षुद्रता है कि इस देते-२ सब लक्ष्मी का क्षय कर दिया. आप कुछ लोक में एक देकर परलोक में दो की आशा रखना । उपार्जन किया ही नहीं जो था वह नाश हो गया । और (आप ही आप) हमने माना कि उस को जहां प्रबन्ध है वहां धन की क्या कमती है । मनुष्य स्वर्ग लेने की इच्छा न हो तथापि अपने कम्मों से वह कितना धन देगा और जाचक कितना लेंगे। स्वर्ग का अधिकारी तो हो जायगा । इ.-पर यदि कोई अपने बित्त के बाहर मांगे या ना.- और जिनको अपने किये शुभ अनुष्ठानों ऐसी वस्तु मांगे जिससे दाता की सर्वस्व हानि हो तो वह से आप संतोष मिलता है उन के इस असीम आनंद के दे कि नहीं? ना.- क्यों नहीं । अपना सर्वस्व वह क्षण भर आगे आपके स्वर्ग का अमृतपान और अप्सरा तो महा में दे सकता है, पात्र चाहिए। जिसको धन पाकर महा तुच्छ है । क्या अच्छे लोग कभी किसी शुभ कृत्य सत्पात्र उसके त्याग की शक्ति नहीं है वह उदार का बदला चाहते हैं। इ.-तथापि एक बेर उनके सत्य की परीक्षा कहा हुआ । होती तो अच्छा होता । इ.- (आपही आप) ना.- राजन् ! आपका यह सब सोचना बहुत ना.-राजन् ! मानियों के आगे प्राण और धन अयोग्य है ! ईश्वर ने आपको बड़ा किया है तो आपको तो कोई वस्तु ही नहीं है । वे तो अपने सहज सुभाव ही दूसरों की उन्नति और उत्तमता पर संतोष करना से सत्य और विचार दृढ़ता में ऐसे बंधे हैं कि सत्पात्र चाहिए । ईर्षा करना तो क्षुद्राशयों का काम है । हरिश्चन्द्र-जिसका सत्य पर ऐसा स्नेह है जैसा महाशय वही है जो दूसरों की बड़ाई से अपनी बड़ाई भूमि, कोष, रानी, और तलवार पर भी नहीं है । जो सत्यानुरागी ही नहीं है भला उससे न्याव कब होगा, इ.-(आप ही आप) इन से काम न होगा । और जिसमें न्याव नहीं है वह राजा ही काहे का है। (बात बहलाकर प्रकट) नहीं नहीं मेरी यह इच्छा थी कि कैसी भी विपति और उभय संकष्ट पड़े और कैसी ही मैं भी उनके गुणों को अपनी आंखों से देखता भला मैं हानि वा लाभ हो पर जो न्याव न छोड़े वही धीर और ऐसी परीक्षा थोड़े लेना चाहता हूं जिसमें उन्हें कुछ यही राजा । और उस न्याव का मूल सत्य है । कष्ट हो। इ.-तो भला वह जिसे जो देने को कहेगा देगा ना.- (आप ही आप) अहा ! बड़ा पद मिलने से वा जो करने को कहेगा वह करैगा । कोई बड़ा नहीं होता । बड़ा वही है जिसका चित्त बड़ा ना.-क्या आप उसका परिहास करते हैं। है । अधिकार तो बड़ा पर चित्त में सदा क्षुद्र और नीच किसी बड़े के विषय में ऐसी शंका ही उसकी निन्दा है । बातें सूझा करती हैं वह आदर के योग्य नहीं है, परन्तु क्या आप ने उसका यह सहज साभिमान बचन कभी जो कैसा भी दरिद्र है पर उसका चित्त उदार और बड़ा है वही आदरणीय है। चन्द टरै सूरज टरै टरै जगत व्योहार । (नारपाल आता है पै दृढ़ श्रीहरिश्चन्द को टरै न सत्य विचार ।। द्वा. महाराज! विश्वामित्र जी आए हैं। इ.- (आप ही आप) तो फिर इसी सत्य के पीछे इ.- (आप ही आप) हां इनसे वह काम होगा। नाश भी होंगे, हमको भी अच्छा उपाय मिला । (प्रकट अच्छे अवसर पर आए । जैसा काम हो वैसे ही स्वभाव हाँ पर आप यह भी जानते हैं कि क्या वह यह सब धर्म के लोग भी चाहिए । (प्रकट) हां हां लिवालाओ । स्वर्ग लेने को करता है? द्वा.-जो आज्ञा । (जाता है) ना.-वाह । भला जो ऐसे उदार हैं उनके आगे (विश्वामित्र आते हैं) स्वर्ग क्या वस्तु है । क्या बड़े लोग धर्म स्वर्ग पाने को इ.- (प्रणामादि शिष्टाचार करके) आइए करते हैं । जो अपने निर्मल चरित्र से संतुष्ट हैं उन के भगवन् बिराजिए। 'आगे स्वर्ग कौन वस्तु है । फिर भला जिनके शुद्ध हृदय वि.- (नारदजी को प्रणाम करके और इन्द्र को समझे। नहीं सुना १. धोती, उपरना, डाढ़ी, जटा, हाथों में पवित्री और कमंडल खड़ाऊँ पर चढ़े । सत्य हरिश्चन्द्र ३८५