पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४३

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अष्टकोन को चिन्ह यह कहत जु सेवे याहि ।१ अनायास ही देत है अष्ट सिदि सुख-धाम । अष्टकोन को चिन्ह पद धारत येहि हित स्याम ।२ हयमेधादिक जग्य के हम ही हैं इक देव । AR अष्टकोण के चिन्ह को भाव वर्णन या हित चिन्ह सुमीन को हरि-पद मैं निरधार ।१ आठो दिसि भूलोक को राज न दुर्लभ ताहि । जब लौं हिय में सजलता तब लौंयाको वास । सुष्क भए पुनि नहि रहत झष यह करत प्रकास ।२ जाके देखत ही बढ़े ब्रज-तिय-मन मैं काम । रति-पति-ध्वज को चिन्ह पद यातें धारत स्याम ।३ घोड़ा के चिन्ह को भाव वर्णन हरि मनमथ को जीति कै ध्वज राख्यौ पद लाइ । याते रेखा मीन की हरि-पद मैं दरसाइ ।४ अश्व-चिन्ह पद धरत हरि प्रगट करन यह भेव ।१ महा प्रलय मैं मीन बनि जिमि मनु रक्षा कीन । याही सों अवतार सब हयग्रीवादिक देख । तिमि भवसागर को चरन या हित रेखा मीन ।५ अवतारी हरि के चरन याही ते हय-रेख ।२ वज़ के चिन्ह को भाव वर्णन बैरहु जे हरि सों करहिं पावहिं पद निवांन । चरण परस नित जे करत इन्द्र-तुल्य ते होत । या हित केशी-दमन-पद हय को चिन्ह महान ।३ बज्र-चिन्ह हरि-पद-कमल येहि हित करत उदोत ।१ हाथी के चिन्ह को भाव वर्णन पर्वत से निज जनन के पापहि काटन काज । जाहि उधारत आपु हरि राखत तेहि पद पास । बन-चिन्ह पद मैं धरत कृष्णचंद्र महराज ।२ या हित गज को चिन्ह पद धारत रमा-निवास ।१ बज्रनाभ यासों प्रगट जादव सेस लखाहिं । सब को पद गज-चरन मैं सो गज हरि-पग माहिं । थापन-हित निज वंश भुवि बज्र चिन्ह पद माहि ।३ यह महत्व सूचन करत गज के चिन्ह देखाहिं ।२ बरछी के चिन्ह को भाव वर्णन सब कवि कविता मैं कहत गजगति राधानाथ । ताहि प्रगट जग मैं करन धर्यो चिन्ह गज साथ । मनु हरिह्र अघ सों डरत मति कहुँ आवै पास । वेणु के चिन्ह को भाव वर्णन या हित बरछी धारि पग करत दूर सो नास ।१ सुर नर मुनि नरनाह के बंस यहीं सों होत । कुमुद के फूल के चिन्ह को भाव वर्णन या हित बंसी चिन्ह हरि पद मैं प्रगट उदोत ।१ श्री राधा-मुखचंद्र लखि अति अनंद श्रीगात । गाँठ नहीं जिनके हृदय ते या पद के जोग । कुमुद-चिन्ह श्रीकृष्ण-पद या हित प्रगट लखात ।१ या हित बंसी चिन्ह पद जानहु सेवक लोग ।२ सीतल निसि लखि फूलई तेज दिवस लखि बंद । जे जन हरि-गुन गावहीं राखत तिनको पास । यह सुभाव प्रगटित करत कुमुद चरण नंदनंद ।२ या हित बंसी चिन्ह हरि पद मैं करत निवास ।३ सोने के पूर्ण कुंम के चिन्ह को भाव वर्णन प्रेम भाव सों जे विधे छेद करेजे माहिं । नीरस यामैं नहिं बसें बसें जे रस भरपूर । तेई या पद मैं बसै आइ सकै कोउ नाहिं 18 पूर्ण कुंभ को चिन्ह मनु या हित धारत सूर ।१ गोपीजन-बिरहागि पुनि निज जन के त्रयताप । मनहुँ घोर तप करति है बसी हरि-पद पास । मेटन हित चरन मैं कुंभ धरत हरि आप ।२ गोपी सह त्रैलोक के जीतन की धरि आस ।५ श्री गोपिन की सौति लखि पद-तर दीनि डारि । सुरसरि श्री हरि-चरन सों प्रगटी परम पवित्र । यात बंसी चिन्ह निज पद मैं धरत मुरारि ।६ या हित पूरन कुंभ को धारत चिन्ह विचित्र ।३ आई केवल ब्रज-बधू क्यों नहिं सब सुर-नारि । कबहुँ अमंगल होत नहिं नित मंगल सुख-साज । निज भक्त्तन के हेत पद कुंभ धरत ब्रजराज ।४ या हित कोपित होइ हरि दीनी पट तर डारि ७ श्री गोपीजन-वाक्य के पूरन करिबे हेत । मन चोर्यो बहु त्रियन को पुन अवनन मग पैठि । सुकुच कुभ को चिन्ह पग धारत रामानिकेत २५ ता प्राछित को तप करत मनु हरि-पद-सर बैठि । धनुष के चिन्ह को भाव वर्णन वेणु सरिस इ पातकी शरण गये रखि लेत । इहाँ स्तब्ध नहिं आवहीं आवहि जे नइ जाहिं । वेणु -धरन के कमल-पद वेणु चिन्ह यहि हेत १९ धनुष चिन्ह एहि हेतु है कृष्ण-चरन के माहि । मीन चिन्ह को भाव वर्णन जुरत प्रेम के घन जहाँ दुग बरसा बरसात । अति चंचल बहु ध्यान सों आवत हृदय मैंझार । मन संध्या फूलत जहाँ तहँ यह धनुष लखात ।२ १. सर्वे पदा : हस्तिपदे निमप्ना : । भक्त सर्वस्व ३