पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४३२

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EXCE*** कुछ हमने भी देखा है। (चिन्ता पूर्वक स्मरण करके) हां | दरवाजे पर खड़ा है ओर व्यर्थ हम लोगों को गाली देता यह देखा है कि एक क्रोधी ब्राह्मण विद्या साधन करने को सब दिव्य महाविद्याओं को खींचता है और जब मैं है. (घबड़ा कर') अभी सादर पूर्वक ले आओ। स्त्री जान कर उनको बचाने गया हूं तो वह मुझी से रुष्ट हा.--जो आज्ञा (जाता है)। हो गया है और फिर जब बड़े बिनय से मैंने उसे मनाया ह.- यदि ईश्वरेच्छा से यह वही ब्राह्मण हो तो है तो उसने मुझसे मेरा सारा राज्य मांगा हैं । मैंने उसे बडी बात हो । प्रसन्न करने को अपना सब राज्य दे दिया है । (इतना (द्वारपाल के साथ विश्वामित्र आते हैं)। कहकर अत्यन्त व्याकुलता नाट्य करता है)। ह.- (आदर पूर्वक आगे से लेकर और प्रणाम रा.- नाथ । आप एक साथ ऐसे व्याकुल क्यों करके) महाराज! पधारिए यह आसन है। हो गए। बि.-बैठे, बेठ चुके. बोल अभी तैंने मुझे ह.-मैं यह सोचता हूं कि अब मैं उस ब्राह्मण पहिचना कि नहीं। को कहा पाऊंगा और बिना उसकी थाती उसे सौंपे ह.- (घबड़ाकर) महाराज ! पूर्व परिचित तो भोजन कैसे करूंगा। आप जात होते हैं। रा.-नाथ । क्या स्वप्न के व्योहार को भी आप वि.- (क्रोध से) सच है रे क्षत्रियाधम तू काहे को सत्य मानिएगा। पहिचानेगा, सच है रे सूर्यकुलकलंक तू क्यों ह.- प्रिये हरिश्चन्द्र की अांगिनी होकर तुम्हें पहिचानेगा, धिक्कार तेरे मिथ्या धर्माभिमान को ऐसे ही ऐसा कहना उचित नहीं है । हां ! मला तुम ऐसी बात लोग पृथ्वी को अपने बोझ से दबाते हैं । अरे दुष्ट तैं मुंह से निकालती हौ ! स्वप्न किसने देखा ? मैं ने न ? भूल गया कल पृथ्वो किस को दान दी थी, जानता नहीं फिर क्या ? स्वप्न संसार अपने काल में असत्य है कि मैं कौन हूँ? इसका कौन प्रमाण है, और जो अब असत्य कहो तो 'जातिस्वयंग्ग्रहणदुर्ललितकविन मरने के पीछे तो यह संसार भी असत्य है फिर इस दृष्यद्वशिष्ठसुतकाननधूमकेतुम् संसार में परलोक के हेतु लोग धम्माचरण क्यों करते सर्गान्तराहरणभीतजगतकृतान्तं हैं ? दिया सो दिया, क्या स्वप्न में क्या प्रत्यक्ष । चण्डालयाजिनमवैषिनकौशिकमाम' रा.- (हाथ जोड़कर) नाथ क्षमा कीजिए. स्त्री की ह.- (पैरों पर गिरके बड़े बिनय से) महाराज! बुद्धि ही कितनी। भला आप को त्रैलोक्य में ऐसा कौन है जो न जानेगा । (चिन्ता करके) पर मैं अब करू क्या ! 'अन्नक्षयादिषु तथाविहितात्मवृत्ति अच्छा । प्रधान ! नगर में डौंडी पिटवा दो कि राज्य सब राजप्रतिग्रह पराइ.मुखमानस त्वाम् लोग आज से अज्ञातनामगोत्र ब्राह्मण का समझे उसके आडोषकप्रधनकम्पितजीवलोकं अभाव में हरिश्चन्द्र उसके सेवक की भाँति उस की कस्तेजसा च तपसा च निधिर्नवेत्ति ।।' थाती समझ के राज का कार्य करेगा और दो मुहर राज बि.- (क्रोध से) सच है रे पाप पाखंड मिथ्यावान काज के हेतु बनवा लो एक पर 'अज्ञातनामगोत्र ब्राह्मण | बीर ! तू क्यों न मुझे 'राज प्रतिग्रह पराइ.मुख' कहेगा सेवक हरिश्चन्द्र' और दूसरे पर 'राजाधिराज अज्ञात क्योंकि तैने तो कल सारी पृथ्वी मुझे दान न दी है, ठहर नाम गोत्र ब्राह्मण महाराज' खुदा रहे और आज से राज ठहर देख इस झूठ का कैसा फल भोगता है, हा ! इसे काष के सब पत्रों पर भी यही नाम रहे । देस देस के देख कर क्रोध से जैसे मेरी दहिनी भुजा शाप देने को राजाओं और बड़े २ कार्यधीशों को भी आज्ञापत्र भेज दो उठती है वैसे ही जाति स्मरण के संस्कार से बाईं भुजा कि महाराज हरिश्चन्द्र के स्वप्न में अज्ञातनामगोत्र | फिर से कृपाण ग्रहण किया चाहती है, (अत्यन्त क्रोध से ब्राह्मण को पृथ्वी दी है इससे आज से उसका राज लांबी सास लेकर और बांह उठा कर) अरे ब्रहमा ! हरिश्चन्द्र मंत्री की भाति सम्हालेगा। सम्हाल अपनी सृष्टि को नहीं तो परम तेज पुज (द्वारपाल आता है) दीर्घतपोवर्दित मेरे आज इस असह्य क्रोध से सारा हा.-महाराजाधिराज ! एक बड़ा क्रोधी ब्राह्मण संसार नाश हो जाएगा, अथवा संसार के नाश ही से १. जटा और डाढ़ी बढ़ाए, खड़ाऊ पहिने, गले में मृगछाला बांधे, घोटी पर बाध की मोटी करधनी, एक हाथ में कुश और कमंडल। MU* भारतेन्दु समग्र ३२८