पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४३३

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होती है ) "क्या ? ब्रह्मा का तो गर्ब उसी दिन मैंने चूर्ण किया । बि.- एक महीने में तो मुझे दक्षिणा न मिलेगी जिस दिन दूसरी सृष्टि बनाई, आज इस राजकुलांगार | तो मैं तुझ पर काठन ब्रह्मदंड गिराऊंगा, देख केवल का अभिमान चूर्ण करूंगा जो मिथ्या अहंकार के बल से एक मास की अवधि है। जगत में दानी प्रसिद्ध हो रहा है। ह.- महाराज! मैं ब्रह्मदंड से उतना नहीं डरता ह.- (पैरों पर गिर के) महाराज क्षमा कीजिए | जितना सत्यदंड से इससे मैंने इस बुद्धि से नहीं कहा था, सारी पृथ्वी आप की मैं बेचि देह दारा सुअन होइ दास ह मन्द । आप का भला आप ऐसी क्षुद्र बात मुंह से निकालते हैं। रखि है निज बच सत्य करि अभिमानी हरिचन्द ।। (इंषत कोष से) और आप बारंबार मुझे झूठा न (आकाश से फूल की वृष्टि और बाजे के साथ जयध्वनि कहिए । सुनिए मेरी यह प्रतिक्षा है । 'चन्द टरै सूरज टरै टरे जगत ब्योहार । (जवनिका गिरती है) पैदृढ़ श्रीहरिचन्द को टरै न सत्य बिचार' ।। ।।इति दूसरा अंक ।। बि.- (क्रोध और अनादर पूर्बक हंस कर) हहहह ! सच है सच है रे मूढ़ ! क्यों नहीं, आखिर सूर्यबंशी है । तो दे हमारी पृथ्वी । तीसरे संक में अंकावतार ह.-- लीजिए, इसमें बिलम्ब क्या है, मैंने तो आप के आगमन के पूर्व ही से अपना अधिकार छोड़ स्थान-वाराणसी का बाहरी प्रान्त तालाब । दिया है । (पृथ्वी की ओर देख कर) (पाप आता है) जेहि पाली इक्ष्वाकु सी अबलो रवि कुल राज । पाप- (इधर उधर दौड़ता और हांफता हुआ) ताहि देत हरिचन्द नृप विश्वामित्र हि आज ।। मरे रे मरे, जले रे जले, कहां जाय, सारी पृथ्वी तो वसुधे ! तुम बहु सुख कियो मम पुरुखन की होय । हरिश्चन्द्र के पुन्य से ऐसी पवित्र हो रही है कि कहीं हम धरमबद्ध हरिचन्द को छमहु तु परबस जोय ।। ठहर ही नहीं सकते । सुना है कि राजा हरिश्चन्द्र काशी बि.- (आप ही आप) अच्छा ! अभी अभिमान गए हैं क्योंकि दक्षिणा के वास्ते विश्वामित्र ने कहा कि दिखा ले, तो मेरा नाम विश्वामित्र तो तुझको सत्यभ्रष्ट सारी पृथ्वी तो हमको तुमने दान दे दी है, इससे पृथ्वी में कर के छोड़ा, और लक्ष्मी से तो भ्रष्ट हो ही चुका है । जितना धन है सब हमारा हो चुका और तुम पृथ्वी में (प्रगट) स्वस्ति । अब इस महादान की दक्षिणा कहां कहीं भी अपने को बेचकर हमसे उरिन नहीं हो सकते । यह बात जब हरिश्चन्द्र ने सुनी तो बहुत ही घबड़ाए और ह.-महाराज! जो आज्ञा हो वह दक्षिणा अभी सोच विचार कर कहा कि बहुत अच्छा महाराज हम आती है। काशी में अपना शरीर बेचेंगे क्योंकि शास्त्रों में लिखा है बि.-भला सहस स्वर्ण मुद्रा से कम इतने बड़े कि काशी पृथ्वी के बाहर शिव के त्रिशूल पर है । यह दान की दक्षिणा क्या होगी । सुनकर हम भी दौड़े कि चलो हम भी काशी चलें क्योंकि ह.- जो आज्ञा (मंत्री से) मंत्री हजार स्वर्ण मुद्रा वहां हरिश्चन्द्र का राज्य न होगा वहां हमारे प्राण बचेंगे, अभी लाओ। सो यहां और भी उत्पात हो रहा है। जहां देखो वहां बि.- (क्रोध से) 'मंत्री हजार स्वर्ण मुद्रा अभी स्नान, पूजा, जप, पाठ, दान, धर्म, होम इत्यादि में लोग लाओ' मंत्री कहा से लावेगा? क्या अब खजाना तेरा है ऐसे लगे रहते हैं कि हमारी मानो जड़ ही खोद डालेगे। कि ते मंत्री पर हुकुम चलता है ? भूठा कहीं का, देना रात दिन शंख घंटा की घनघोर के साथ वेद की धुनि ही नहीं था तो मुंह से कहा क्यों ? चल मैं नहीं लेता ऐसे मानो ललकार के हमारे शत्रु धर्म की जय मनाती है और हमारे ताप से कैसा भी मनुष्य क्यों न तपा हो ह.-(हाथ जोड़कर बिनय से) महाराज ठीक है । भगवती भागीरथी के जलकण मिले वायु से उसका हृदय खजाना अब सब आप का है, मैं भूला क्षमा कीजिए । एक साथ शीतल हो जाता है । इसके उपरान्त शिशि क्या हुआ खजाना नहीं है तो मेरा शरीर तो है। शि. ...ध्वनि अलग मारे डालती है । हाय कहां जायं मनुष्य की दक्षिणा। १. काजल सा रंग, लाल नेत्र, महा कुरूप, हाथ में नंगी तलवार लिए, नीला काछ कछे । exeksi सत्य हरिश्चन्द्र ३८९