पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४३४

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है' ।।२।। क्या करें । हमारी तो संसार से मानो जड़ ही कट जाती मनिकर्निकादि सात आवरन मध्य पुन्य रूप धंसी है है, भला और जगह तो कुछ हमारी चलती भी है पर यहां गिरिधरदास पास भागीरथी सोभा देत जाकी बार तोरै तो मानो हमारा राज ही नहीं, कैसा भी बड़ा पापी क्यों न आसुकर्म रूप रसी है । ससी सम जसी असी बरना मैं हो यहां आया कि गति हुई । बसी पाप खसी हेतु असी ऐसी लसी बारानसी (नेपथ्य में) सच है, येषांक्यापिगतिनास्ति तेषांवाराणसीगति : 'रचित प्रभासी भासी अवलि मकानन की जिनमें पाप- अरे! यह कौन महा भयंकर भेस, अंग अकासी फबै रतन नकासी है । फिर दास दासी बिप्रगृही में भभूत पोते ; एड़ी तक जटा लटकाए, लाल लाल औ सन्यासी लसै बर गुनरासी देवपुरी हूँ न जासी है । आँख निकाले साक्षात काल की भाँति तृशूल घुमाता हुआ गिरिधरधास विश्वकीरति बिलासी रमा हासी लौ चला आता है । प्राण ! तुम्हें जो अपनी रक्षा करनी हो तो उजासी जाकी जगत हुलासी है। खासी परकासी भागो पाताल से, अब इस समय भूमंडल में तुम्हारा पुनवासी चंद्रिका सी जाके वासी अबिनासी अवनासी ठिकाना लगना कठिन ही है। ऐसी कासी है' ।।३।। (भागता हुआ जाता है) देखो । जैसा ईश्वर ने यह सुंदर अंगूठी के नगीने सा (भैरव आते हैं) नगर बसाया है वैसी ही नदी भी इसके लिए दी है । धन्य भैर.- सच है। येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां गंगे! वाराणसी गति : । देखो इतना बड़ा पुण्यशील राजा 'जम सब त्रास बिनास करी मुख तें निज नाम हरिश्चन्द्र भी अपनी आत्मा और स्त्री पुत्र बेचने को यहीं उचारन में । सब पाप प्रतापहि दूर दरयाौ तुम आपन आया है । अहा ! धन्य है सत्य । आज जब भगवान् आप निहारन में । अहो गंग अनंग के शत्रु करे बहु नेकु भूतनाथ राजा हरिश्चन्द्र का वृतात भवानी से कहने लगे जलै मुख डारन में । गिरिधारनजू कितने बिरचे गिरि- तो उनके तीनों नेत्र अत्रु से पूर्ण हो गए और रोमांच होने धारन धारन धारन में" ||४|| से सब शरीर के भस्मकण अलग अलग हो गए । मुझको कुछ महात्म ही पर नहीं गंगा जी का जल भी ऐसा ही आज्ञा भी हुई है कि अलक्ष रूप से तुम सर्वदा राजा उत्तम और मनोहर है। आहा! हरिश्चन्द्र की अंगरक्षा करना । इससे चल मैं भी भेस नव उज्जल जलधार हार हीरक सी सोहति। बदल कर भगवान की आज्ञा पालन में प्रवर्त हूँ । बिच बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति।। (जाते हैं । जवनिका गिरती है) लोल लहर पवन एक पै इक इमि आवत। तीसरे अंक में यह अंकावतार समाप्त हुआ जिमि नरगन मन विविध मनोरथ करत मिटावत।। सुमग स्वर्ग सोपान सरिस सब के मन भावत। तीसरा अंक वरसन मज्जन पान विविध भय दूर मिटावत।। श्री हरिपदनखा चन्द्रकान्त मनि द्रवित सुधारस। (स्थान काशी के घाट किनारे की सड़क) ब्रल्म कमंडल मंडन भव खंडन सुर सरबस ।। महाराज हरिश्चन्द्र घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं शिव सिरमालति माल भगीरथ नृपति पुन्य फल। ह.- देखो काशी भी पहुंच गए । अहा ! धन्य है | ऐरावत गज गिरि पति हिम नग कंठहार कल ।। काशी । भगवति बाराणसि तुम्हें अनेक प्रणाम हैं। सगर सुअन सठसहस परस जल मान्न उधारन। अहा ! काशी की कैसी अनुपम शोभा है । अगिनित धारारूप धारि सगर संचारन। 'चारहु आश्रम बर्न बसै मनि कंचन धाम अकास कासी कहं प्रिय जानि ललकि भेट्यौ जब धाई। बिभासिका । सोभा नहीं कहि जाई कछ बिधि नै रची | सपनेहूं नहि तजी रही अंकन लपटाई।। मानो पुरीन की नासिका । आपु बसै गिरि धारनजू तट कहूं बंधे नव घाट उच्च गिरिवर सम सोहत। देवनदी बर बारि बिलासिका। पुन्यप्रकासिका कहुं छतरी कहुं मढ़ी बढ़ी मन मोहत जोहत ।। धवल धाम चहु ओर फरहरत धुजा पताका । पापबिनासिका हीयहुलासिका सोहत कासिका' ।।१।। घहरत घंटा धुनि धमकत धौसा करि साका।। 'बसैं बिदुमाधव बिसेसरादि देव सबै दरसन ही ते मधुरी नौबत बजत कहूं नारी नर गावत। लागै जब मुख मसी है। तीरथ अनादि पंचगंगा | बेद पढ़त कहुं द्विज कहुं जोगी ध्यान लगावत।। १. महादेव जी का सा सिंगार, तीन नेत्र, नीला रंग एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे में प्याला । २. यह चारों कवित्त ग्रंथकर्ता के पिता श्री बाबू गोपालचन्द्र के बनाए हैं जो कविता में अपना नाम। गिरिधरदास रखते थे। Natok भारतेन्दु समग्र ३९०