पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४३५

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ह.- रखि हैं निब बच सत्य करि अभिमानी हरिश्चन्द ।। कहूं सुंदरी नहात नीर कर जुगल उछारत (नेपथ्य में) तो क्यों नहीं जल्दी अपने को बेचता ? जुग अंबुज मिलि मुक्त गुच्छ मनु सच्छ निकारत।। धोअत सुंदरि बदन करन अति ही छवि पावत। क्या हमें और काम नहीं है कि तेरे पीछे-२ दक्षिणा के 'बारिधि नाते ससि कलंक मनु कमल मिटावत ।। वास्ते लगे फिरें ? सुंदरि ससि मुख नीर मध्य इमि सुंदर सोहत अरे मुनि तो आ पहुंचे । क्या हुआ आज कमल बेलि लहलही नवल कुसमन मन मोहत।। उनसे एक दो दिन की अवधि और लेंगे। दीठि जही जहं जात रहत तितही ठहराई। (विश्वामित्र आते हैं) गंगा छबि हरिचन्द्र कट्र बरनी नहीं जाई।। वि.- (आप ही आप) हमारी विद्या सिद्ध हुई (कुछ सोचकर) पर हां ! जो अपना जी दुखी होता है भी इसी दुष्ट के कारण फिर बहक गई कछु इन्द्र के तो संसार सूना जान पड़ता है। कहने ही पर नहीं हमारा इस पर स्वत : भी क्रोध है पर क्या करें इसके सत्य, धैर्य और बिनय के असन वसनं वासो येषां चैवाविधानतः । राज्यभ्रष्ट हो चुका पर जब तक इसे सत्यभ्रष्ट न कर मगधेनसमाकाशी गंगाप्यंगारवाहिनी ।।१ लूंगा तब तक मेरा संतोष न होगा । (आगे देखकर) अरे यही दुरात्मा (कुछ सक कर) वा महात्मा हरिश्चंद्र है । विश्वामित्र को पृथ्वी दान करके जितना चित्त प्रसन्न (प्रगट) क्यों रे आज महीने में कै दिन बाकी हैं । बोल नहीं हुआ उतना अब बिना दक्षिणा दिये दुखी होता है । कब दक्षिणा देगा? हा ! कैसे कष्ट की बात है राजपाट धनधाम सब छूटा ह.-(धबड़ाकर) अहा! महात्मा कौशिक । अब दक्षिणा कहां से देंगे! क्या करें! हम सत्य धर्म भगवान् प्रणाम करता हूँ। (दंडवत करता है)। कभी छोड़ेहीगे नहीं और मुनि ऐसे क्रोधी है कि बिना वि.- हुई प्रणाम. बोल तैं ने दक्षिणा देने का क्या दक्षिणा मिले शाप देने को तैयार होंगे, और जो वह शाप उपाय किया ? आज महीना पूरा हुआ अब मैं एक क्षण न भी देंगे तो क्या ? हम ब्राह्मण का ऋण चुकाए बिना भर भी न मानूंगा । दे अभी नहीं तो - शाप के वास्ते शरीर भी तो नहीं त्याग कर सकते । क्या करें ? कुबेर | कमंडल से जल हाथ में लेते हैं ।) को जीत कर धन लावें? पर कोई शस्त्र भी तो नहीं है । ह.- (पैरों में गिरकर) भगवन् क्षमा कीजिए; तो क्या किसी से मांग कर दें? पर क्षत्रिय का तो धर्म क्षमा कीजिए । यदि आज सूर्यास्त के पहिले न दं तो जो नहीं कि किसी के आगे हाथ पसारे । फिर ऋण काढ़ें ? चाहे कीजिएगा । मैं अभी अपने को बेचकर मुद्रा ले पर देंगे कहां से । हा! देखो काशी में आकर लोग आता हूं। संसार के बंधन से छूटते हैं पर हमको यहां भी हाय हाय वि.- (आप ही आप वाह रे महानुभावता ! मची है । हा! पृथ्वी ! तू फट क्यों नहीं जाती कि मैं | (प्रगट) अच्छा आज सांझ तक और सही । सांझ को न अपना कलकित मुंह फिर किसी को न दिखाऊ । देगा तो मैं शाप ही न दूंगा वरच त्रौलोक्य में आज ही (आतंक से) पर यह क्या ? सूर्यवंश में उत्पन्न होकर विदित कर दूंगा कि हरिश्चन्द्र सत्य भ्रष्ट हुआ । हमारे यह कर्म है कि ब्राह्मण का ऋण दिए बिना पृथ्वी (जाते हैं) में समा जाना सोचे । (कुछ सोच कर) हमारी 5. किसी मुनी से प्राण बचे । अब समय कुछ बुद्धि ही नहीं काम करती । क्या करें ? हमें | चलें अपना शरीर बेचकर दक्षिणा देने का उपाय सोने । तो संसार सूना देख पड़ता है । (चिन्ता करके । एक हा ! ऋण भी कैसी बुरी वस्तु है, इस लोक में वही साथ हर्ष से) वाह अभी तो स्त्री पुत्र और हम तीन-२ | मनुष्य कृतार्थ है जिसने ऋण चुका देने को कभी क्रोधी मनुष्य तैयार हैं . क्या हम लोगों के बिकने से सहस्र | और क्रूर लहनदार की लाल आंखें नहीं देखी हैं । (आगे स्वर्ण मुद्रा भी न मिलेंगी ? तब फिर किस बात का | चलकर) अरे क्या बजार में आ गए, अच्छा, (सिर पर इतना शोच ? न जाने बुद्धि इतनी देर तक कहा सोई | तृण रखकर) २ अरे सुनो भाई सेठ, साहूकार, महाजन, थी । हमने तो पहले ही विश्वामित्र से कहा था : दुकानदार, हम किसी कारण से अपने को हजार मोहर बेचि देह दारा सुअन होय दास हूँ मंद । पर बेचते हैं किसी को लेना हो तो लो । (इसी तरह १. जिन का भोजन, वस्त्र और निवास ठीक नहीं है उनको काशी भी मगह है और गंगा भी तपाने वाली है २. उस काल में जब कोई दास्य स्वीकार करता था तो सिर पर तृण रखता था । सत्य हरिश्चन्द्र ३९१