पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४३७

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करो। ऋणमुक्त हजिए। मुख सहज लज्जा से ऊंचा नहीं होता, और दृष्टि बराबर । रानी से) प्रिये सर्वभाव से उपाध्याय को प्रसन्न रखना पैर ही पर है । जो बोलती है वह धीरे धीरे और बहुत | और सेवा करना । सम्हाल के बोलती है। हा! इसकी यह गति क्यों शै.- (रोकर) नाथ ! जो आज्ञा । हुई ! (प्रकट) पुत्री तुम्हारे पति हैं न ? बटु. उपाध्याय जी गए अब चलो जल्दी शै. (राजा की ओर देखती है) ह.-आप ही आप दुख से) अब नहीं । पति के है.- (आंखों में आंसू भर के) देवी (फिर सक होते भी ऐसी स्त्री की यह दशा हो । कर अत्यंत सोच से आप ही आप) हाय ! अब मैं देबी उ. राजा को देख कर आश्चर्य से) अरे यह क्य कहता हूं अन तो बिधाता ने इसे दासी बनाया । विशाल नेत्र, प्रशस्त वक्षस्थल, और संसार की रक्षा (धैर्य से) देवी ! उपाध्याय की आराधना भली भांति करने के योग्य लंबी-२ भुजावाला कौत मनुष्य है, और करना और इनके सब शिष्यों से भी सुइत भाव रखना, मुकुट के योग्य सिर पर तृण क्यों रखा है ? (प्रगट) ब्राह्मण के स्त्री की प्रीति पूर्वक सेवा करना, बालक महात्मा तुम हम को अपने दुख का भागी समझो और का यथासंभव पालन करना, और अपने धर्म और प्राण कृपा पूर्बक अपना सब वृत्तांत कहो । की रक्षा करना । विशेष हम क्या समझावें जो जो ह.- भगवान ! और तो बिदित करने का दैव दिखावे उसे धीरज से देखना । (आंसू बहते हैं) अवसर नहीं है इतना ही कह सकता हूँ कि ब्राह्मण के शै.- जो आज्ञा (राजा के पैरों पर गिर के रोती मृणा के कारण यह दशा हुई। उ.- तो हम से धन लेकर आप शीघ्र ही ह.- (धैर्य पूर्वक) प्रिये ! देर मत करो बटुक घबड़ा रहे हैं। ह.- (दोनों कानों पर हाथ रख कर) राम राम ! शै.-(उठकर रोती और राजा की ओर देखती यह तो ब्राह्मण को वृत्ति है । आप से धन लेकर हमारी | हुई धीरे धीरे चलती है) कौन गति होगी? बा.- (राजा से) पिता मां क जाती ऐं। उ.- तो पांच हजार पर आप दोनों में से जो चाहे (धैर्य से आंसू रोककर) जहां हमारे भाग्य सो हमारे संग चले। ने उसे दासी बनाया है। शै.- (राजा से हाथ जोड़कर) नाथ हमारे आछत बा.- (बटुक से) अले मां को मत लेजा । (मा आप मत बिकिए, जिस में हम को अपनी आँख से यह का आचल पकड़ के खींचता है) न देखना पड़े हमारी इतनी बिनती मानिए । (रोती है) (बालक को ढकेल कर) चल चल देर ह.- (आसू रोक कर) अच्छा ! तुम्ही जाओ। होती है। (आपही आप) हा ! यह बन हृदय हरिश्चन्द्र ही का है बा. (ढकेलने से गिर कर रोता हुआ उठकर कि अब भी नहीं विदीर्ण होता । अत्यंत क्रोध और करुणा से माता पिता की ओर देखता शै.- (राचा के कपड़े में सोना बांधती हुई)| है) नाथ ! अब तो दर्शन भी दुलंभ होंगे। (रोती हुई ह.- ब्राह्मण देवता! बालकों के अपराध से उपाध्याय से) आर्य आप क्षण भर क्षमा करें तो मैं आर्य नहीं रुष्ट होना (बालक को उठाकर धूर पोंछ के मुंह पुत्र का भली भांति दर्शन कर लूं । फिर यह मुख कहां चूमता हुआ) पुत्र मुझ चांडाल का मुख इस समय ऐसे और मैं कहां। क्रोध से क्यों देखता है ? ब्राह्मण का क्रोध तो सभी उ.- हां हां मैं जाता हूँ कौडिन्य यहा है तुम दशा में सहना चाहिए । जाओ माता के संग मुझ उसके साथ आना । जाता है) भाग्यहीन के साथ रह कर क्या करोगे । (रानी से) प्रिये (रोकर) नाथ मेरे अपराधों को क्षमा धैर्य धरो । अपना कुल और जाति स्मरण करो । अब करना। जाओ देर होती है। ह.--(अत्यन्त घबढ़ाकर) अरे अरे बिधाता तुझे (रानी और बालक रोते हुए बटुक के साथ जाते हैं) यही करना था । (आप ही आप) हा! पहिले महारानी ह.-- धन्य हरिश्चन्द्र ! तुम्हारे सिवाय और ऐसा 'बनाकर अब दैव ने इसे दासी बनाया । यह भी देखना कठोर हृदय किस का होगा । संसार में धन और जन' बदा था । हमारी इस दुर्गति से आज कुलगुरु भगवान छोड़कर लोग स्त्री की रक्षा करते हैं पर तुमने उसका सूर्य का भी मुख मलिन हो रहा है । (रोता हुआ प्रकट भी त्याग किया। Fot*444 सत्य हरिश्चन्द्र ३९३ शै.-