पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४४१

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(ऊपर देखकर) अहा ! स्थिरता किसी को भी नहीं है । जो सूर्य उदय होते ही पद्मिनी बल्लभ और लौकिक वैदिक दोनों कर्म का प्रवर्तक था, जो दो पहर तक अपना प्रचंड प्रताप क्षण-२ बढ़ाता गया. जो गगनांगन का दीपक और कालसर्प का शिखामणि था, वह इस समय परकटे गिढ़ की भांति अपना सब तेज गंवाकर देखो समुद्र में गिरा चाहता है। अथवा साझ सोई पट लाल कसे कटि सूरज खप्पर हाथ लयो है । पच्छिन के बहु सब्दन के मिस जी उचाटन मंत्र कह्यो है । मद्य भरी नर खोपरी सो ससि को नव बिम्बहू धाइ गयो है । दै बलि जीव पसू यह मत हवै काल कपालिक नाचि रहयो है। सूरज धूम बिना की चिता सोई अंत में ले जल माहिं बहाई । बोलें घने तरु बैठि बिहगम रोअत सो मनु लोग लोगाई । धूम अंधार, कपाल निसाकर, हाड़ नछत्र, लहसीललाई । अनंद हेतु निसाचर के यह काल समान सी सांझ बनाई। अहा ! यह चारों ओर से पक्षी लोग कैसा शब्द करते हए अपने-२ घोसलों की ओर चले आते हैं । वर्षा से नदी का भयंकर प्रवाह, सांभ होने से स्मशान के पीपल पर कौओं का एक संग अमंगल शब से कांव-कांव करना, और रात के आगम से एक सन्नाटे का समय चित में कैसी उदासी और भय उत्पन्न करता है। अधकार बढ़ता ही जाता है। वर्षा के कारण इन स्मशानवासी मंड्रकों का टर-टर करना भी कैसा डरावना मालूम होता है। रुरुआ चहुंदिसि ररत डरत सुनि के नर नारी । फटफटाइ दोउ पंख उलूकह रटत पाकारी । अन्धकार बस गिरत काक अस चोल करत रव । गिद्ध गरुड़ हॉगल्ल भजत लखिविकट भयद दव । रोअत सियार गरजत नदी स्वान भूमि डरपावई । संग दादुर झीगुर रुदन धुनि मिलि खर तुमुल मचावई। इस समय ये चिता भी कैसी भयंकर मालूम पड़ती हैं । किसी का सिर चिता के नीचे लटक रहा है. कही आंच से हाथ पैर जलकर गिर पड़े हैं, कहीं शरीर आधा जला है, कहीं बिल्कुल कच्चा है, किसी को वैसे ही पानी में बहा दिया है, किसी को किनारे छोड़ दिया है. किसी का मुंह जल जाने से दात निकला हुआ भयंकर हो रहा है, और कोई दहकती आग में ऐसा जल गया कि कहीं पता भी नहीं है। वाहरे शरीर ! तेरी क्या क्या गति होती है !!! सचमुच मरने पर इस शरीर को चटपट जला ही देना योग्य है क्योकि ऐसे रूप और गुण जिस शरीर में थे, उसको कीडों वा मछलियों से नुचवाना और सड़ा कर दुगंधमय करना बहुत ही बुरा है । न कुछ शेष रहेगा न दुर्गति होगी । हाय ! चलो आगे चलें । (खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर उधर घूमता है) (कौतुम से देखकर) पिशाचों का क्रीड़ा कुतूहल भी देखने योग्य है । अहा! यह कैसे काले- काले झाडू से सिर के बाल खड़े किये लम्बे-२ हाथ पैर बिकराल दांत लम्बीभ निकाले इधर उधर दौड़ते और परस्पर किलकारी मारते हैं मानों भयानक रस की सेना मूर्तिमान होकर यहाँ स्वच्छंद बिहार कर रही है। हाय हाय ! इन का खेल और सहज व्योहार भी कैसा भयंकर है। कोई कटाकट हड्डी चबा रहा है, कोई खोपड़ियों में लोह भर भर के पीता है, कोई सिर का गेंद बनाकर खेलता है. कोई अंतड़ी निकालकर गले में डाले है और चंदन की भांत चरबी और लोह शरीर में पोत रहा है. एक दूसरे से मांस छीन कर ले भागता है, एक जलता मांस मारे तृष्णा के मुंह में रख लेता है पर जब गरम मालूम पड़ता है तो थू थू करके थूक देता है, और दूसरा उसी को फिर फट से खा जाता है। हा! देखो यह चुडैल एक स्त्री की नाक नथ समेत नोच लाई है जिसे देखने को चारों ओर से सब भूतने एकत्र हो रहे हैं और | सभों को इसका बड़ा कौतुक हो गया है । हंसी में परस्पर लोह्र का कुल्ला करते हैं और जलती लकड़ी और मुरदों के अंगों से लड़ते हैं और उनको ले ले कर नाचते हैं । यदि तनिक भी क्रोध में आते हैं तो स्मशान में कुत्तों को पकड़-२ कर खा जाते हैं । अहा ! भगवान भूतनाथ ने बड़े कठिन स्थान पर योग साधना की है। (खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर उधर फिरता है) (ऊपर देख कर) आधी रात हो गई. वर्षा के कारण अंधेरी बहुत ही छा रही है. हाथ से हाथ नहीं सूझता । चांडाल कुल की भांत स्मशान पर तम का भी आज राज हो रहा है । (स्मरण करके) हा । इस दु:ख की दशा में भी हमसे प्रिया अलग पड़ी है । कैसी भी हीन अवस्था हो पर अपना प्यारा जो पास रहे तो कुछ कष्ट नहीं १. प्राचीन काल में राज के अपराधी लोग स्मशान ही पर गला काट कर मारे जाते थे इसी से यहां स्मशान के वर्णन में लोड़ का वर्णन है। सत्य हरिश्चन्द्र ३९७