पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४४२

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मालूम पड़ता । सच हे-"टूट टाट घर टपकत खटियो (आगे बढ़कर महाराज हरिश्चन्द्र को देखकर आप ही ट । पिय के बाह उसिसवा सुख के लूट । बिधना आप) ने इस दु:ख पर भी बियोग दिया हा ! यह वर्षा और यह हम प्रतच्छ हरि रूप जगत हमरे बल चालत । दु:ख! हरिश्चन्द्र का तो ऐसा कठिन कलेजा है कि सब जल थल नभ थिर मम प्रभाव मरजाद न टालत ।। सहेगा पर जिसने सपने में भी दुख नहीं देखा वह हमहीं नर के मीत सदा सांचे हितकारी । महारानी किस दशा में होगी। हा देवि! धीरज धरो हम ही इक संग जात तजत जब पितु सृत नारी ।। धीरज घरो । तुमने ऐसे ही भाग्यहीन से स्नेह किया है सो हम नित धित इक सत्य में जाके बल सब जग जियो। जिसके साथ सदा दुख ही दुख है । (ऊपर देखकर) अरे सो सत्य परिच्छन नृपति को आजु भेष हम यह कियो।। पानी बरसने लगा ! (घोघी भली भात ओढ़कर) हमको (कुछ सोचकर) राजर्षि हरिश्चन्द्र की दु:ख परंपरा तो यह वर्षा और स्मशान दोनों एक ही से दिखाई पड़ते अत्यंत शोचनीय और इनके चरित्र अत्यन्त आश्चर्य के हैं। देखो हैं! अथवा महात्माओं का यह स्वभाव ही होता है। चपला की चमक दहघा सो लगाई चिता चिनगी सहत बिबिध दुख मरि मिटत भोगत लाखन सोग । चिलक पटबीजना चलायो है । हेती बग माल स्याम पै निज सत्य न छाड़हीं जे जग सांचे लोग । बाद सु भुमिकारी बीर बधू बूंद भव लपटायो है ।। बरु सूरज पच्छिम उगै बिन्ध्य तरै जल माहि । हरीचन्द नीर धार आंसू सी परत जहाँ दादर को सोर सत्य बीर जन पै कबहुं निज बच टारत नाहिं ।। रोर दुखिन मचायो है । दाहन बियोगी दुखियान को मरे अथवा उनके मन इतने बड़े हैं कि दुख को दुख, सुख है यह देखो पापी पावस मसान बनि आयो है। को सुख गिनते ही नहीं । चलें उनके पास चलें । (आगे (कुछ देर तक चुप रह कर) कौन है ? (खबरदार | बढ़कर और देखकर) अरे यही महात्मा हरिश्चन्द्र हैं ? इत्यादि कहता हुआ इधर उधर फिर कर) (प्रकट) महाराज ! कल्याण हो । इन्द्रकालहू सरिस जो आयसु लांघे कोय । ह.-(प्रणाम करके) आइये योगिराज । यह प्रचंड भुज दंड मम प्रति भट ताको होय ।। ध.-महाराज हम अर्थी हैं 1 अरे कोई नहीं बोलता । (कुछ आगे बड़कर) कौन ह. (लज्जा और विकलता नाट्य करता है) ध.- महराज आप मज्जा मत कीजिए । हम (नेपथ्य में) हम हैं। लोग योग बल से सब कुछ जानते हैं । आप इस दशा ह.-अरे हमारी बात का उत्तर कौन देता है? पर भी हमारा अर्थ पूर्ण करने को बहुत हैं । चन्द्रमा राहु चलो जहां से आवाज आई है वहां चलकर देन । आगे से ग्रसा रहता है तब भी दान दिलवा कर भिक्षुओं का बड़कर नेपथ्य की ओर देखकर) अरे यह कौन है? कल्याण करता है। चिता अंग लगाए। ह. आज्ञा । हमारे योग्य जो कुछ हो आज्ञा अस्थि अभूषन बिबिध बनाए । कीजिए। हाथ मसान कपाल जगावत । ध.- अंजन गुटिका पादुका धातुभेद बैताल । को यह चल्यो रुद्र सम आवत ।। बज रसायन जोगिनी मोहि सिद्ध इहि काल । (कापालिक के वेष में धर्म आता है') तो मुझे आज्ञा हो वह करूं । धर्म.- अरे हम है ध.- आज्ञा यही है कि यह सब मुझे सिद्ध हो वृत्ति अयाचित आत्म रति करि जग के सुख त्याग । गए हैं पर बिध्न इस में बाधक होते हैं सो आप विध्नों फिरहिं मसान-२ हम धारि अनन्द बिराग ।। का निवारण कर दीजिए। भस्म सब 1 १. गेरुए वस्त्र का काछा कछे गेरुआ कफनी पहिने, सिर के बाल खेले. सेंदर का अदचंद्र दिए नंगी तलवार गले में लटकती हुई, एक हाथ में खप्पड़ बलता हुआ, दूसरे हाथ में चिमटा. अंग में भभूत पोते. नशे से आँखें लाल, लाल फूल की माला और हड्डी के आभूषण पहिने । २. अंजन सिद्धि से जमनी में गड़े खजाने देख पड़ते हैं । गुटिका धुंह में रखकर वा पादुका पहिन कर चाहे (जहां अलक्ष्य चला जाय । धातुभेद से औषध मात्र सिद्ध होती हैं । बैताल बस में होकर यथेच्छ काम देता है । वज्र सिद्ध होने से जहां गिराओ वहां गिरता है । रसायन सिद्धि से चादी सोना बनता है । जोगिनी सिद्ध होने से भूत भविष्य का वृत्तांत कह देती है। और सब इच्छा पूर्ण करती है। यही आठो सिद्धि हैं। PRO भारतेन्दु समग्र ३९८