पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४४४

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है.--- (आश्चर्य से) अरे यह कौन देवता बड़े । मनो जम जांगी । बोलत फेरी विहंगम देव संजोगिन को प्रसन्न होकर स्मशान पर एकत्र हो रहे हैं। भई संपत्ति काची । लोढ़ पियो जो जियोगिन को सो दे.- महाराज हरिश्चन्द्र की जय हो । आप के कियो मुख लाल पिशाचिन प्राची ।" हा ! प्रिये इन अनुग्रह से हम लोग विनों से छूट कर स्वतंत्र हो बरसातों की रात को तुम रो रो के बिताती होगी ! हा! गए । अब हम आपके वश में है जो आज्ञा हो करें। वत्स रोहिताश्व, भला हम लोगों ने तो अपना शरीर हम लोग अष्ट महा सिद्ध नव निधि और बारह प्रयोग धेचा तप दास हुए तुम बिना बिके ही क्यों दास अन सब आपके हाथ में है। गए! ह.- (प्रणाम करके) यदि हम पर आप लोग जोहि सहसन परिचायिका राखत हाहि हाथ । सो प्रसन्न हो तो महासिद्धि योगियों के निधि सज्जन के, तुम लोटत धूर में दास बालकन साथ ! जाकी आपसु और प्रयोग साधको के पास पायो। जग नृपति सुनतहि धारत सोस ! तेहि द्विज बटु अज्ञा दे.- (आश्चर्य से) धन्य राजर्षि हरिश्चन्द्र करत आहह कठिन अति इस । बिनु तन थेने विनु जग तुम्हारे बिना और ऐसा कोन होगा जो धर भाई लक्ष्मी ज्ञान विवेक । देव सर्पाशित भए भोगत कष्ट अनेक का त्याग करे । हमी लोगों की सिद्धि को बड़े २ योगी (घबड़ाकर) नारायण ! नारायण ! मेरे मुख से क्या मुनि पच मरते हैं पर तुमने तृण की भांति हमारा त्याग निकल गया । देवता उस रक्षा करें । (बाई आंख करके जगत कल्याण किया । का फड़कना दिवाकर) इसी समय में यह महा ह.- आप लोग मेरे सिर आंखों पर है पर मैं क्या अपशकुन क्यों हुआ? (दाहिनी भुवा का फड़कना कर. क्योंकि में पराधीन है। एक बात और भी दिखजर) अरे और साथ ही यह मंगल शाकुन भी ! न निवेदन है । वह यह कि अच्छे प्रयोग की तो हमारे जाने क्या होनहार है, वा अप क्या होनहार है जो होना समय में सब: सिदिहोय पर बुरे प्रयोगों । सिदि था सो हो चुका । अब इस से बढ़कर और कौन विलंब से हो। दे.-महाराज! जो आज्ञा । हम लोग जाते है। होगी ? अब केवल मरण मात्र बाकी है । इच्छा तो यही है कि सत्य छूटने और दीन होने के पहिले ही शरीर छठे आज आप के सत्य ने शिव जी के कोलन' को भी क्योंकि इस दष्ट चित्त का क्या ठिकाना है पर बश क्या शिथिल कर दिया । महाराज का कल्याण हो । है। (जाते हैं। (नेपथ्य में) (नेपथ्य में इस भाति मानो राजा हरिश्चन्द्र नहीं सुनते) पुत्र हरिश्चन्द्र सावधान । यही अन्तिम परीक्षा है । (एक स्वर से) तो अग अप्सरा को भेजें। तुम्हारे पुरखा इक्ष्वाक से लेकर त्रिशक पर्यन्त आकाश में ने भरे खड़े एक टक तुम्हारा मुख देख रहे है। (इसरे स्वर से) छि: मूर्नु ! जिस को अष्ट सिद्धि नव निधियों ने नही डिगाथा उसको अप्सरा क्या आज तक इस यंपा में ऐसा कठिन : किसी को नहीं हुआ था । ऐसा न हो कि हन का सिर नीचा हो । अपने डिमावेगी पर्व का स्मरण करो। (एक स्वर से) तो ऋष अन्तिम उपाय किया जाय। (इसरे स्वर से) हाँ तक्षक को अजा दे । और है ? कलगुरु भगवान सूर्य अपना तेज समेटे मझे ह.- (पयटा कर ऊपर देखकर अरे ! यह कौन कोई उपाय नही है। ह.- हा अराण का उदय हुत्रा चाहता है । पूर्व सब दुखों को फूल की माला की भाति राहण करना । अनुशासन कर रहे हैं। (ऊपर पित : मैं सावधान है पिता ने अपना मुंह लाल किया । (सांस गो कर) "क (नेपथ्य से रोन बी अवाज सुन पड़ती है) चकई को भयो चित चीतो नितांति चहू दिसि नाय सो नाची । खे गई छीन कलाधर की काय अमिनो आति ह.-अरे अब सवेरा होने के समय मुरथा श्रागा! अथवा चाँडल कला का सदा कल्याण हो हमें इस से नील, और वर्चस । बारह प्रयोग यय-मारण, मोहन, उच्चाटन, बोलन, विद्वेषण और कामनाशन यह छ बुरे, और स्तंभन, वशीकरण, आकर्षण, बंदी मोक्षण, कालपुरण जोर वाक् प्रसारण वे छ: अच्छे । १. शिवजी ने साधन मात्र को कोत दिया है जिस में जमादी न सिद्ध वें सो राजा हरिश्चन्द्र ने विधनों को जो रोक दिया इस से वह कीपन भी शिव जी की इच्छा पूर्वक उस समय दूर हो गया था क्योंकि यह भी तो एक सब मे पड़ा विघ्न था। EX भारतेन्दु समन ४००