पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४४८

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बारम्बार कांपती है, अब त्रैलोक्य की रक्षा करो । (नेत्रों न करे । से आंसू बहते हैं। (हरिश्चन्द्र और शैव्या प्रणाम करते हैं) ह.--(साष्टांग दंडवत करके रोता हुआ गद्गद भै.-और जो तुम्हारी कीर्ति कहे सुने और स्वर से) भगवान ! मेरे वास्ते आपने परिश्रम किया ! उसका अनुसरण करे उस की भैरवी यातना न हो । इन्द्र.-- (राजा को आलिंगन करके और हाथ कहां यह श्मशान भूमि, कहाँ यह मर्त्यलोक, कहां मेरा जोड़ के) महाराज मुझे क्षमा कीजिये । यह सब मेरी मनुष्य शरीर और कहां पूर्ण परब्रहम सच्चिादानंदघन दुष्टता थी परंतु इस बात से आप का तो कल्याण ही साक्षात आप ! (प्रेम के आंसुओं से और गद्गद कंठ होने से हुआ । स्वर्ग कौन कहे आप ने अपने सत्यबल से कुछ कहा नहीं जाता) भ.- (शैव्या से) पुत्री अब शोच मत कर ! धन्य ब्रहमपद पाया । देखिये आप की रक्षा के हेतु श्रीशिव जी ने भैरवनाथ को आज्ञा दी थी. आप उपाध्याय बने थे, तेरा सौभाग्य कि तुझे, राजर्षि हरिश्चन्द्र ऐसा पति नारद जी बटु बने थे, साक्षात धर्म ने आप के हेतु मिला है (रोहिताश्व की ओर देखकर वत्स गेहिताश्व चांडाल और कापालिक का भेष लिया, और सत्य ने उठो देखो तुम्हारे माता पिता देर से तुम्हारे मिलने को आप ही के कारण चांडाल के अनुचर और बैताल का व्याकुल हो रहे हैं। रूप धारण किया । न आप बिके न दास हुए. यह सब (रोहिताश्व उठ खड़ा होता है और आश्चर्य से चरित्र भगवान नारायण की इच्छा से केवल आप के भगवान को प्रणाम कर के माता पिता का मुंह देखने सुयश के हेतु किया गया । लगता है, आकाश से फिर पुष्पवृष्टि होती है) ह.-- (गद्गद स्वर से) अपने दासों का गश ह. और शै.-- (आश्चर्य, आनंद, करुणा और बढ़ानेवाला और कौन है। प्रेम से कुछ कह नहीं सकते, आंखों से आंसू बहते हैं महाराज । और भी जो इच्छा हो मांगो । और एकटक भगवान के मुखारबिंद की ओर देखते है) ह.-- (प्रणाम करके गद्गद स्वर से) प्रभु ! आप (श्री महादेव, वार्बती, भैरव, धर्म, सत्य, इंद्र, और के दर्शन से सब इच्छा पूर्ण हो गई, तथापि आप की विश्वामित्र आते हैं) आज्ञानुसार यह वर मांगता हूं कि मेरी प्रजा भी मेरे साथ सब-- धन्य महाराज हरिश्चन्द्र धन्य ! जो बैकुंठ जाय और सत्य सदा पृथ्वी पर स्थिर रहे । आपने किया सो किसी ने, न किया, न करेगा। भ.- एवमस्तु, तुप ऐसे ही पुण्यात्मा हो कि (राजा हरिश्चन्द्र शैव्या और रोहिताश्व सबको प्रणाम तुम्हारे कारण अयोध्या के कीट पतंग जीव मात्र सब परमधाम जायगे, और कलियुग में धर्म के सब चरण बि.- महाराज यह केवल चन्द्र सूर्य तक आप टूट जायंगे तब भी वह तुम्हारी इच्छानुसार सत्य मात्र की कीर्तिस्थिर रहने के हेतु मैंने कुल किया था सो क्षमा एक पद से स्थित रहेगा । इतना ही देकर मुझे सन्तोष कीजिए ओर अपना राज्य लोजिए। नहीं हुआ कुछ और भी मांगो । मैं तुम्हें क्या २ (हरिश्चन्द्र भगवान और धर्म का मुंह देखते हैं) क्योंकि मैं तो अपने ही को तुम्हें दे चुका । तथापि मेरी धर्म.--- महाराज राज आप का है इसका मैं इच्छा यही है कि तुम को कुछ और वर दूं । तुम्हे साक्षी हूँ आप निस्संदेह लीजिए। देने में मुझे सन्तोष नहीं होता । सत्य,-ठीक है जिसने हमारा अस्तित्व संसार ह.- (हाथ जोड़कर) भगवान मुझे अब कौन में प्रत्यक्ष कर दिखाया उसी का पृथ्वी का राज्य है। इच्छा है । मैं और क्या वर मांगू तथापि भरत का यह श्रीमहादेव. .---पुत हरिश्चन्द्र भगवान नारायण वाक्य सुफल हो - के अनुग्रह से ब्रह्मलोक पर्यंत तुम ने पाया तथापि मैं खल गनन सों सज्जन दुखी मति होई. हरिपद रति रहै। आशिर्वाद देता हूं कि तुम्हारी कीर्ति जब तक पृथ्वी है | उपधर्म छुटै सत्व निज भारत गहै, कर दुख तब तक स्थिर रहे, और रोहिताश्व दीर्घायु, प्रतापी और बुध तहिं मत्सर, नारि नर सम होहिं, सबजगसुखल है तजि ग्राभकविता सुकविजन की अमृत बानी सब कहै ।। पा.-पुत्री शैव्या ! तुम्हारे पति के साथ तुम्हारी (पुष्पवृष्टि और बाजे की धुनि के साथ कीर्ति स्वर्ग की स्त्रियां गावें, तुम्हारी पुत्रवधू जवनिका गिरती है) सौभाग्यवती हो और लक्ष्मी तुम्हारे घर का कभी त्याग इति श्री सत्य हरिश्चंद्र नाटक सम्पूर्ण हुआ ।। करते हैं) वर बहै ।। चक्रवर्ती होय । भारतेन्दु समग्र ४०४