पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४६८

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'धुरपद गाया गया । (कुछ ठहर कर) किसी को बुलाकर पहिला अंक पूछे तो (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है ? पारि- पार्श्वक आता है। स्थान -राजभवन पा.-कहो, क्या आज्ञा है? सूत्र.- (सोच कर) क्या खेलने की तैयारी (राजा, रानी, विदूषक और दरबारी लोग दिखाई पड़ते हैं) पारि. .- हां, आज सट्टक न खेलना है। राजा- प्यारी, तुम्हें बसन्त के आने की बधाई सूत्र. किस का बनाया ? पारि.. है, देखो अब पान बहुत नहीं खाया जाता, न सिर में •-राज्य की शोभा के साथ अंगों की शोभा का; और राजाओं में बड़े दानी का अनुवाद किया । तेल देकर चोटी कस के गूंधी जाती है, वैसे ही चोली भी कस के नहीं बांधी जाती, न केसर का तिलक दिया जा सूत्र.- (विचार कर) यह तो कोई कूट सा सकता है, उसी से प्रगट है कि बसन्त ने अपने बल मालूम पड़ता है (प्रगट) हां हां राजशेखर का और से सरदी को अब जीत लिया । हरिश्चन्द्र का। पारि.- हां, उन्हीं का । रानी-महाराज! आपको भी बधाई है, देखिए, सूत्र.- ठीक है, सट्टक में यद्यपि विष्कम्भक कामी जन चन्दन लगाने और फूलों की माला पहिरने प्रवेशक नहीं होते तब भी यह नाटकों में अच्छा होता है। लगे, और दोहर पाएंते रक्खी रहती है, तो भी अब (सोचकर) तो भला कवि ने इस को संस्कृत ही में क्यों ओढ़ने की नौबत नहीं आती । न बनाया, प्राकृत में क्यों बनाया ? पारि.-आप ने क्या यह नहीं सुना है? (नेपथ्य में दो बैतालिक गाते हैं ।) जै पूरब दिसि कामिनी कंत । जामैं रस कछु होत है, पढ़त ताहि सब कोय । चपावति नगरी सुख समंत ।। बात अनूठी चाहिए. भाषा कोऊ होय ।। खेलत जीत्यौ जिन राढ़ देश । और फिर मोहत अनंग लखि जासु भेस ।। कठिन संस्कृत अति मधुर, भाषा सरस सुनाय । क्रीड़ा मृग जाको सारदूल । पुरुष नारि अन्तर सरिस, इन में बीज लखाय ।। सूत्र.- तो क्या उस कवि ने अपना कुछ वर्णन तन बरन कान्ति मनु हेम फूल ।। नहीं किया ? सब अंग मनोहर महाराज । पारि.-क्यौ नहीं, उस समय के कवियों के यह सुखद होइ रितुराज साज ।। चन्द्रमा अपराजित ही ने उसका बड़ा बखान किया है । मन्द मन्द लै सिरिस सुगन्धहि सरस पवन यह आवै । निरभर बालक राज कवि, आदि अनेक कबीस । करि संचार मलय पर्वत 4 बिरहिन ताप बढ़ावै ।। जाके सिखए तें भए, अति प्रसिद्ध अवनीस ।। कामिनि जन के बसन उड़ावत काम धुजा फहरावे । धवल करत चारहु दिसा, जाको सुजस अमन्द । जीवन प्रान दान सो बितरत वायु सबन मन भावै ।।१।। सो शेखर कबि जग विदित. निज कुल कैरव चन्द ।। देखहु लहि रितुराजहि उपबन फूली चारु चमेली । लपटि रही सहकारन सों बहु मधुर माधवी बेली ।। सूत्र.- पर भला आज तुम को किस ने खेलने की आज्ञा दी है? फूले बर बसन्त बन बन मैं कहु मालती नबेली । पारि.-अवन्ती देश के राजा चारुधान की बेटी ता मदमाते से मधुकर गूजत मधुरस रेली ।।१ ।। उसी कवि की प्यारी स्त्री ने, और यह भी जान रक्खो राजा- प्यारी, हम लोग तो आपस में बसन्त कि इस सट्टक में कुमार चन्द्रपाल कुन्तल देश की की बधाई एक दूसरे को देते ही थे अब इन दोनों राजकुमारी को ब्याहेगा । तो अब चलो अपने २ स्वांग कांचनचन्द्र और रत्नचन्द्र बन्दियों ने हम दोनों को सजै, देखो तुम्हारा बड़ा भाई देर से राजा की रानी का बधाई दी । अब तुम इस बसन्तोत्सव की ओर दृष्टि भेस धर कर परदे के आड़ में खड़ा है। करो । देखो कोइल कैसे पंचम सुर में बोलती है, हवा के झोंके से लता कैसी नाच रही है तरुन स्त्रियों के जी (दोनों जाते हैं) में कैसा इस का उत्साह छा रहा है और सारी पृथ्वी इस बसन्त की वायु से कैसी सुहानी हो रही है। भारतेन्दु समग्र ४२४