पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४६९

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(गाता है) रानी-महाराज! बन्दी ने जैसा कहा है हवा जायगा, देखिए संगीत साहित्य दोनों एक ही साथ वैसी ही बर रही है. देखिए यह पवन लंका के कनगूरों करना मेरा काम है। की पंगति में यद्यपि कैसा चंचल है पर अगस्त मुनि के आश्रम में उन के भय से धीरा चलता है, इसके झोंके गेंदा फूले जैसे पकौरि । से चन्दन कपूर कंगोल और केले के पत्ते कैसे झोंका लड्डू से फले फल बौरि बौरि । खा रहे हैं, जंगलों में जहां सांप नाचते हैं और ताम्रपर्णी खेतन में फूले भातदाल । नदी की लहरों को यह स्पर्श करता है तो उन्हें दूना कर घर में फूले हम कुल के पाल ।। देता है। आयो आयो बसन्त आयो आयो बसन्त ।। देखिये, कोयल मानों कामदेव की आज्ञा से इस चैत (सब लोग हंसते हैं) के त्यौहार में पुकार रही है कि तरुणिओ झूठा मान राजा- भला इनकी कविता तो हो चुकी अब छोड़ो, अपने प्यारे को प्यार की चितवन से देखो, और बिचक्षणे ! तुम भी कुछ पढ़ो । दौड़ दौड़ के प्रीतम को गले लगाओ यह चार दिन की विदु.- हां हां, हमारी बोली पर हंसती है तो जवानी तो बहती नदी है, फिर यह दिन कहां और यह यह पढे बड़ी बोलने वाली इस को सिवाय टें टें करने के समय कहां? और आता क्या है, क्या ऐसी बदमाश स्त्री राजा के विदूषक- अरे कोई मुझे भी पूछो, मैं भी बड़ा महल में रहने के योग्य है ? यह रात दिन महारानी का पंडित हूं, जब मैंने अपना मकान बनाया था तो हजारो गहना चुरा कर अपने मित्रों को दिया करती है और उस गदहों पर लाद लाद कर पोथियां नेव में भरवाई गई थी पर हमारे काव्य पर हंसती है, सच है बन्दर आदी का और हमारे ससुर जनम भर हमारे यहां पोथी ही ढोते २ स्वाद क्या जाने, हमारे काव्य पर रीझनेवाले महाराज मरे, काले अक्षर दूसरों को तो कामधेनु हैं पर हमको हैं, तू क्या रीझेगी, अब देखते न है तू कैसा काव्य मैंस हैं। पढती है। विचक्षणा- इसी से तो तुम्हारा नाम लबार रानी- हां हां सखी विचक्षणे! हम लोगों के पाड़े हैं। आगे तो तू ने अपना बनाया काव्य कई बेर पढ़ा है, आज वि.- (क्रोध से) हत तेरी की, दाई माई कुटनी महाराज के सामने भी तो पढ़, क्योंकि विद्या वही जिस लुच्ची मूर्ख ! अब हम ऐसे हो गए कि मजदूरिन भी हमैं की सभा में परीक्षा ली जाय और सोना वही जो कसौटी पर चढ़े और शस्त्र वही जो मैदान में निकले। विच.- तुम्हारी माई कुटनी है तभी तुम ऐसे विचक्षणा- महारानी की जो आज्ञा (पढ़ती है) सपूत हुए. तुम से तो वे भाट अच्छे जो अभी गीत गा फूलैंगे पलास बन आगि सी लगाइ कूर, गए हैं, तुम्हें इतनी भी समझ नहीं कि कुछ बनाओ कोकिल कुहुकि कल सबद सुनावैगो ।। और गाओ, यह सेखी और तीन काने । त्यौंही सखी लोक सबै गावैगो धमार धीर । विद.- अब हम इन के सामने गावेंगे, इनका हरन अबीर बीर सब ही उड़ावैगो ।। मुंह है कि हमारी कविता सुनें हां अगर हमारे दोस्त सावधान होहुरो वियोगिनी सम्हारि तन, महाराज कुछ कहें तो अलबत्ते गाऊं । अतन तनकही मैं तापन तें ताबैगो ।। राजा- हां, हां मित्र पढ़ो, हम सुनते हैं । धीरज नसावत बढ़ावत बिरह काम, विदू. - लाठी पर तमूरा बजा कर गाता है । कहर मचावत बसन्त अब आवैगो ।। आयो २ बसन्त आयो २ बसन्त । राजा- वाह वाह ! सचमुच विचक्षणा बड़ी ही बन में महुआ टेसू फुलन्त ।। चतुर है और कविता-समुद्र के पार हो गई है, यह तो नाचत है मोर अनेक भाति, सब कवियों की राजा होने योग्य है। मनु भैंसा का पड़वा फूलफालि । रानी- (हस कर) इस में कुछ सन्देह है हमारी बेला फूले बन बीच बीच, सखी सब कवियों की सिरताज तो हुई। मानो दही जमायो सींच सींच । विदू.- (क्रोध से) तो महारानी स्पष्ट क्यों नहीं 'बहि चलत भयो है मन्द पौन, कहती कि यह दासी विचक्षणा बहुत अच्छी है और मनु गदहा का छान्यो पैर । कपिञ्जल ब्राहमण बहुत निकम्मा है । तारीफ और वाह वाह करते जाइए नहीं न गाया विचक्षणा- हैं हैं ! एक बारगी इतने लाल कर्पूर मंजरी ४२५