पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४७०

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WORK बखिया । पीले हो गए, जो जैसा है उसका गुण तो उस के काव्य चाहता है कि पान के बदले चरनदास जी से तेरा मुंह ही से प्रकट हो गया, तुम्हारे काव्य की उपमा तो ठीक | लाल कर दूं । फिट । ऐसी है जैसे लम्बस्तनी के गले में मोती की माला, बड़े विदू. (बड़े क्रोध से ऊचे स्वर से) ऐसे पेटवाली को कामदार कुरती, सिर मुण्डी के फूलों की दरबार को दूर ही से नमस्कार करना चाहिए जहां चोटी और कानी को काजल । लौंडिया पण्डितों के मुंह आवै । यदि हमें इसी विदु.

- सच है, और तुम्हारी कविता ऐसी है | उचक्की की बात सहनी हों तो हम वसुंधरा नाम को

सफेद फर्श का गोबर का चौथ, सोने की सिकड़ी में | अपनी ब्राह्मणी हो की न चरनसेवा करें जो अच्छा लोहे की घण्टी और दरियाई की अंगिया में मूंज की अच्छा और गर्म २ खाने को खिलावे (ऐसा कहता हुआ क्रोध से चला जाता है) (सब लोग हंसते हैं)। विचक्षणा-खफा मत हो, अपनी ओर देखो, रानी-महाराज कपिंजल बिना सभा ऐसी हो आप आप ही हो, एक अक्षर नहीं जानते तिस पर भी | गई जैसे बिना काजल का श्रृंगार । हीरा तौलते हो, और हम सब पढ़ लिख कर भी अब नेपथ्य में । तक कपास ही तौलती हैं। नहीं २ हम नहीं आवेंगे । विचक्षणा को खसम और विदू.-- बकबक किये ही जायगी तो तेरा दहिना राजा को मुसाहब कोई दूसरा खोज लो या आज ये और बायां युधिष्ठिर का बड़ा भाई उखाड़ लेंगे । हमारा काम वही गलितयौवना और चिपटे नाक कान विचक्षणा और भी जो 2 टें किये ही वाली करेंगी। तुम विचक्षणा-महारानी ! आपके आग्रह से यह जाओगे तो तुम्हारी भी स्वर्ग काट के एक ओर के पोंछ की अनुप्रास मूड देंगे और लिखने की सामग्री मुंह में | कपिंजल और भी अकड़ा जाता है, जैसे सन की गांठ भिगाने से उलटी कड़ी होती है, उसको जाने दीजिए पोत कर पान के मसाले का टीका लगा देंगे । राजा-मित्र ! इस के मुंह मत लगो, यह इधर देखिए यह गवांरिनों के गीतों और चांचर से कविताई में बड़ी पक्की हैं। मोहित सूर्य यद्यपि धीरे चलता है तो भी अब कितना विदू. (क्रोध से) तो साफ साफ क्यों नहीं पास आ गया है। कहते कि हरिश्चन्द्र और पद्माकर इसके आगे कुछ (बिदूषक घबड़ाया हुआ आता है) विदूषक- आसन ! आसन !! (क्रोध करके इधर इधर घूमता है) राजा-क्यो विचक्षणा- चल, उसी खूटी पर लटक जिस विदूषक-भैरवानन्द जी आते हैं। पर मेरा लहगा रक्खा है। राजा-क्या वही भैरवानन्द जो आज कल के विदुषक- - (क्रोध कर और सिर हिला के) और बड़े प्रसिद्ध है? विद्वषक- हां, हां। तू भी वहां जा जहाँ मेरी बुड्ढी मां के दांत गए । छि : ! (भैरवानन्द आते हैं) हम भी बड़े २ दरबार से निकाले गए पर ऐसी अंधेर भै.न.-जंत्र न मत्र न ज्ञान न ध्यान न जोग न नगरी और चौपट राजा कहीं नहीं । यहां चरणामृत भोग केवल गुरु का प्रसाद, पीने को मदिरा और खाने और शराब एक ही बरतन में भरे जाते हैं । विचक्षणा- भगवान करे इस दरबार से तुझे | को मांस, सोने को स्त्री मसान का बास, लाख लाख दासी सब कड़े २ अंग सेवा में हाजिर रहैं पीए मद्य वह मिले जो महादेव जी के सिर पर है और तुझे वह भंग, भिच्छा का भोजन और चमड़े का बिछौना, लंका शास्त्र पढ़ाया जाय जो कांटो को मर्दन करता है। पलंग सातों दीप नवों खण्ड गौना, ब्रह्मा विष्णु महेश विदूषक-लौडिया फिर टे दें किये ही जाती पीर पैगम्बर जोगी जती सती बीर महाबीर हनूमान है, खजाना लूट लूट के खाली कर दिया, इस पर भी रावन महिरावन अकाश पताल जहां बांधू तहां रहे जो मोढ़े पर बैठने वाली और गलियों में मारी मारी फिरने वली, हम कुलीन ब्राह्मणों के मुंह लगती है । जा जो कहूँ सो सो करे, मेरी भक्ति गुरु की शक्ति फुरो तुझको सर्वदा वही फाकना पड़े जो महादेव जी अंग में मंत्र ईश्वरोवाच, दोहाई पशुपति नाथ की, दोहाई पोतते हैं और तेरे हाथ सदा वही लगे जिस में धरम कामाक्षा की, दोहाई गोरखनाथ की। बंधता है। राजा-महाराज! प्रणाम !1 विचक्षणा- तेरे इस बोलने पर तो ऐसा जी मै.न.- राजा ! विष्णु और ब्रह्मा तप करते २

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भारतेन्दु समग्र ४२६ नहीं हैं।