पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४७१

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थक गए पर सिद्धि मद्य और स्त्री ही में है यह महादेव गोरी जाधै इस के चिपके हुए भीगे वस्त्र से यद्यपि जी ही ने जाना है तो वह कापालिकों के परम कुलगुरु चमकती है तो भी यह उन को दबाए देती है, वरञ्च शिव तेरा कल्याण करै। इसी अंग उघरने से यह लजाकर सकपकानी सी भी हो राजा महाराज, आसन पर विराजिए। रही है और योगबल से खिंच आने से जो कुछ डर गई मै.न.- हम रमते लोगों को बैठने से क्या है, इससे और भी चौकन्नी हो होकर भूले हुए मृगछौने काम, तब भी तेरी खातिर से बैठते हैं। (बैठता की भाँति अपने चंचल नेत्र नचाती है । है -बोल, क्या दिखावें? स्त्री-(चकपकानी सी होकर एक एक को राजा-महाराज! कुछ आश्चर्य दिखाइए । देखती है) (आप ही आप) यह कोन पुरुष है जिस का भैरवानन्द क्या आश्चर्य दिखावे? देह गम्भीर और मधुर छबि का मानों पुंज है, निश्चय सूरज बांधू चन्दर बांधू बांधू अगिन पताल । यह कोई महाराज है और यह भी महादेव के अंग में सेंस समुन्दर इन्दर बांधू औ बांधू जम काल ।। पार्वती की भांति निश्चय इस की प्यारी महारानी हैं, जच्छ रच्छ देवन की कन्या बल लाऊ बांध । और यह कोई बड़ा जोगी हैं. हो न हो यह सब इसी का राजा इन्दर का राज डोलाऊं तो मैं सच्चा साध ।। खेल है (विचार करके) यद्यपि यह एक स्त्री के बगल में नहीं तो जोगड़ा । और क्या । बैठा है तो भी मुझे ऐसी गहरी और तीखी दृष्टि से क्यों राजा- (विदूषक के कान में) मित्र, तुम ने कहीं देखता है (राजा की ओर देखती है ।) कोई बड़ी सुन्दर स्त्री देखी हो तो बुलवावें ? श - (विदूषक से कान में) मित्र ! अभी जो विदूषक. •- (स्मरण करके) हां! दक्षिण देश इसने अपने कानों को छूने वाली चञ्चल चितवन से में विदर्भ नाम नगर है वहा' मैंने एक लड़की बड़ी सुन्दर | मुझे देखा तो ऐसा मालूम हुआ कि मानों मुझ पर किसी देखी थी, वही बुलाई जाय । ने अमृत की पिचकारी चलाई वा कपूर बरसाया वा भैरवानन्द- बोल ! बुलाई जाय ? चांदनी से एक साथ नहला दिया या मोती का बुक्का राजा- हां! महाराज ! पूर्णमासी का चन्द्रमा छिड़क दिया। पृथ्वी पर उतारा जाय । विदूषक - सच्च है, अहाहा ! वाह रे इस के भैरवानन्द-(ध्यान करता है) रूप की छबि ! इसकी कमर एक लड़का भी अपनी (पदे के भीतर से खिंची हुई की मांति एक सुन्दर स्त्री | मुट्ठी में पकड़ सकता है, और नेत्र की चञ्चलता देख आती है और सब लोग बड़ा ही आश्चर्य करते हैं) कर पुरुष क्या स्त्री भी मोह जाती हैं, देखो यद्यपि इस राजा-(आश्चर्य से) आहाहा! जैसे रूप का ने स्नान के हेतु गहना उतार दिया है तो भी कैसी सुहानी खजाना खुल गया, नेत्र कृतार्थ हो गए, यह रूप, यह दिखाई पड़ती है । सच्च है, सुन्दर रूप को तो गहना जोबन, यह चितवन, यह भोलापन, कुछ कहा नहीं ऐसा है जैसा निर्मल जल को काई । जाता, मालूम होता है कि वह नहा कर बाल सुखा रही राजा-ठीक है, इस की छबि तो आप ही थी उसी समय पकड़ आई है, अहा! धन्य है इसका कुन्दन की निन्दा करती है । तो गहने से इसे क्या, इस रूप !!! इसकी चितवन कलेजे में से चित्त को जोरा का दुबला शरीर काम की परतंचा उतारी हुई कमान है, जोरी निकाले लेती है, इसकी सहज शोभा इस समय और इस के गोरे गोरे गोल गालों में कनफूल की कैसी भली मालूम पड़ती है, अहा ! इसके कपड़े से जो परछाही ऐसी दिखाती है जैसे चांदी की थालों में भरे पानी की बूंदे टपकती है वह ऐसी मालूम होती हैं मानों हुए मजीठ के रंग में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब, इस के भावी वियोग के भय से वस्त्र रोते हैं, काजल आंखों से कर्णवलम्बी नेत्र मेरे मन को अपनी ओर खींचे ही लेते धो जाने से नेत्र कैसे सुहाने हो रहे हैं, और बहुत देर है 1 तक पानी में रहने से कुछ लाल भी हो गए हैं, बाल विदूषक- (हंस कर) जाना जाना ! बहुत हाथों में लिए हैं उससे पानी की बूंदें ऐसी टपकती है | बड़ाई मत करो । मानों चन्द्रमा का अमृत पी जाने से दो कमलों ने नागिनी राजा-(हंस कर) मित्र ! हम कुछ झूठ नहीं को ऐसा दबाया है कि उनके पोंछ से अमृत बहा जाता कहते. तुम्ही देखो, यह बिना आभूषण भी अपने गुणों से है, भीगे वस्त्र से छोटे छोटे इसके कठोर कुच अपनी भूषित है । जो स्त्रियाँ ऐसी सुन्दर हैं उन पर पुरुष को ऊंचाई और श्यामताई से यद्यपि प्रत्यक्ष हो रहे हैं तो भी आसक्त कराने में कामदेव को अपना धनुष नहीं चढ़ाना यह उन्हें बाह से छिपाना चाहती है, और वैसे ही गोरी | पड़ता, देखो इसकी चितवन में मिठास के साथ स्नेह कर्पूर मंजरी ४२७ 30