पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४७२

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भी झलकता है, इस के कान में नीले कमल के फूल हैं, क्योंकि बहिन को अभी कपड़ा पहराना और सिंगार भूलते हुए ऐसे सुहाते हैं मानो चन्द्रमा में सो दोनों ओर करना है। से कलंक निकला जाता है। राजा इस को सिंगारना तो मानों चपे के धाल रानी- अजी कपिंजल ! इनसे पूछो तो यह में कस्तूरी भरना है, पर सांझ हो चुकी है अब हम भी कौन हैं या मैं ही पूछती हूं । (स्त्री से) सुन्दरी, यहाँ तो चलते हैं। आओ, मेरे पास बैठो और कहो तुम कौन हो ? (नेपथ्य में दो बैतालिक गाते हैं) राजा-आसन दो । प.वै.- (राग गौरी) विदूषक - यह मैंने अपना दुपट्टा बिछा दिया भई यह सांझ सबन सुखदाई । है, बिराजो (स्त्री बैठती है)। मानिक गोलक सम दिन मनि मनु संपुट दियो छिपाई।। विदूषक- हां, अब कहो । अलसानी दृग मूदि मूदि के कमल लता मन भाई । स्त्री-कुन्तल देश में जो विदर्भनगर है, वहां पच्छी निज निज चले बसेरन गावत काम बधाई ।। की प्रजा का बल्लभ, बल्लभराज नामक राजा है। दू. वै.- (राग पूरबी) देखो बीत चल्यो दिन रानी-(आप ही आप) वह तो मेरा मौसा है। प्यारे, आई गई रतियां हो रामा । दीपक बरे निकस स्त्री-उसकी रानी का नाम शशिप्रभा है। चले तारे हो, हिलत नहीं पतियां हो रामा ।। दासिन रानी- (आप ही आप) और यही तो मेरी मौसी महलन सेज बिछाई हो मान मई मतियां रामा । काम का भी नाम है। छोड़ि घर फिरै सबै नर हो, लगी तिय छतियां हो स्त्री-(आख नीची कर के) मैं उन्हीं की बेटी रामा ।। (जवनिका गिरती है। रानी-(आप ही आप) सच है, बिना शशिप्रभा पहला अंक समाप्त हुआ । के और ऐसी सुन्दर लड़की किस की होगी । सीप बिना मोती और कहाँ हो (प्रगट) तो क्या कर्पूरमंजरी तू ही है? स्त्री- (लाल से सिर झुका कर चुप रह जाती स्थान राजभवन रानी-तो आओ २ बहिन मिल तो लें। (राजा और प्रतिहारी आते हैं) (कर्पूरमंजरी को गले लगा कर मिलती है) कर्पूरमंजरी-बहिन, यह आज हमारी पहली प्र.-इधर महाराज इधर । राजा-(कुछ चल कर सोच से) हा ! उस रानी-भैरवानन्द जी की कृपा से कर्पूरमंजरी समय वह यद्यपि कुच नितम्ब भार से तनिक भी न का देखना हमें बड़ा ही अलभ्य लाभ हुआ । अब यह हिली, परन्तु त्रिबली के तरंग भय श्वास से चंचल पन्द्रह दिन तक यहीं रहे, फिर आप जोगबल से पहुँचा | थे,और गला तिरछा था, मुखचंद्र हिलने से बेणी ने दीजिएगा। कंचुकी की आलिंगन किया था, सो छबि तो भुलाए भी मैगवानद-महारानी की जो इच्छा । नहीं भूलती। विदूषक-मित्र ! अब हम तुम दो ही मनुष्य प्रतिहारी-(आप ही आप) क्या अब तक वही यहाँ बेगाने निकले, क्योंकि ये दोनों तो बहिन ही हैं गेंद वही चौगान ! अच्छा देखो, हम इनका चित्त बसन्त और भैरवानन्द जी इन दोनों के मिलाने वाले ठहरे, यह के वर्णन से लुभाते हैं । (प्रत्यक्ष) महाराज ! इधर सरस्वती की दूसरी कुटनी मी एक प्रकार की रानी ही देखिए, कोकिल के कण्ठ खोलनेवाले भ्रमरों की ठहरी, गए हम । झंकार में माधुर्य उत्पन्न करनेवाले और बिरहियों रानी-विचक्षणा! अपनी बड़ी बहन सुलक्षण के चित्त पंचम स्वर से घूर्णित करनेवाले चैत के से कह कि मैरवानन्द जी की पूजा कर के उन को दिन अब कुछ बड़े होने लगे। राजा-(सुन कर अनुराग से) सच्च है, तभी न विचक्षणा- जो आज्ञा । लावन्य जल से पूरित अनेक विलास हास से छके सब रानी-महाराज ! अब हम महल में जाते । की सुदरता जीतनेवाले उस के नील कमल से नेत्रों को भारतेन्दु समग्र ४२८ दूसरा अंक भेट है। यथायोग्य स्थान दे।