पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४७३

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विच. मूठ कहेंगे। स्मरण करके श्रृंगार को जगाते हुए कामदेव ने और दो पत्ता अपनी छोटी बहिन कर्पूरमंजरी को दिया, वियोगियों पर यह कठिन धनु कान तक तान कर तीर उस ने भी एक पत्ता मंगला गौरी को चढ़ाया, और दूसरे चढ़ाया है, (पागल की भाति) हा! वह हरिननयनी पत्ते की पुड़िया यह आप के भेंट है जिस में कस्तूरी के मानों चित्त में घूमती है, उस के गुण नहीं भूलते, सेज अक्षरों से छन्द लिखे हैं। पर मानों सोई हुई है, और मेरे साथ ही साथ चलती है, (पत्र राजा को देती है) प्रति शब्द में मानों बोलती है, और काव्यों से मानों राजा-(खोल कर पढ़ता है) मूर्तिमान प्रगट होती है, हा ! जिस को उसने नेत्र भर जिमि कपूर के हंस सों, हंसी धोखा खाय । नहीं देखा है जब वे बसन्त ऋतु के पंचम गान से मरे तिमि हम तुम सों नेह करि, रहे हाय पछिताय ।। जाते हैं तो जिन्हें उस ने पूर्णदृष्टि से देखा है उन्हें तो (इस को वारम्बार पढ़ कर) अहा ! यह वही मदन के तिलाजुलि ही देना योग्य है । हाय ! उस के दूध के रसायन अक्षर हैं। घोए सफेद कोए में काली भवरे सी पुतली कैसी शोभित विच.- महाराज! दूसरा छन्द मैं ने अपनी हैं, जिन की दृष्ठि के साथ ही कामदेव भी हृदय में प्यारी सखी की दशा में बना के लिखा है; उसे भी प्रवृष्ट हो जाता है । (विचार कर के) प्यारे मित्र ने क्यों पढ़िए । देरी लगाई। राजा-(पढ़ता है) (विचक्षणा और विदूषक आते हैं। बिरह अनल दहकत तिनत छाती । विदू.- तो विचक्षणा तुम सच कहती हो न ? दुखद उसास बढ़त दिन राती ।। - हां हां सच है, वाह ! सच नहीं क्या गिरत आसु संग सखि कर चूरी । तन सम जियन आस भई दूरी ।। विदू. - हम को तुम्हारी बात का विश्वास इससे विच.- और अब मेरी बहिन ने जो उस का नहीं आता कि तुम बड़ी हंसोड़ हो । हाल लिखा है वह पढ़िए । विच.- वाह ! हंसी की जगह हंसी होती है, राजा-(पढ़ता है) काम की बात में हंसी कैसी ? तुम बिन तासु उसास गुरु, भए हार के तार । विदु.- (राजा को देख कर) अहा ! प्यारे मित्र तन चंदन पति जात हैं, बिरह अनल संचार ।। यह बैठे हैं, हा ! बिना हंस के मानस, बिना मद के तन पीरो दिन चंद सम, निस दिन रोअत जात । हाथी, तुषार के काल, दिन के दीपक और प्रात:काल कबहुं ताको मुख कमल, मृदु मुसकनि बिकसात ।। के पूर्णचन्द्र की भांति महाराज कैसे तनछीन मनभलीन राजा-(लम्बी सांस लेकर भला कविता में तो हो रहे हैं ? वह तुम्हारी बहिन ही है, इसका क्या कहना है । दोनो (सामने जाकर) महाराज की जय हो । विदू.-महाराज ! विचक्षणा पृथ्वी की सरस्वती राजा-कहो मित्र, तुम्हें विचक्षण कहां मिली ? और इसकी बहिन त्रैलोक्य की सरस्वती, भला इसका विदू.-महाराज ! आज विचक्षणा मुझ से क्या पूछना है, पर हम भी अपने मित्र के सामने कुल मित्रता करने आई थी, इन्ही बातों में तो इतनी देर पढ़ना चाहते है। लगी। जबसों देखी मृगनयनि, भूत्यो भोजन पान । राजा- क्यों, विचक्षणा तुम से क्यों मित्रता निसदिन जिय चिन्तत वहै, रुचत और नहिं आन ।। मलय पवन तापत तनहि, फूल माल न सुहात । विदू. - क्योंकि आज यह किसी बड़े प्यारे चंदन लेप उसीर रस, उलटो जारत गात ।। मनुष्य की पत्नी हाथ में लिए है। हार धार तरवार से, सूरज सो बढ़ि चंद । राजा-और भला यह केवडा कहां से आया ? सबहीं सुख दुखमय भयो, परे प्रान हू मंद ।। विच.- केवड़े ही के पत्र पर पत्नी लिखी है । राजा-प्रान न मंद होंगे, अभी थोड़ी ही देर में राजा बसन्त ऋतु में केवड़ा कहा से आया ? लड्डू से जिला दिए जायगे । अब यह कहो कि विच.- भैरवानन्द जी ने अपने मंत्र के प्रभाव रनिवास में फिर क्या क्या हुआ ? से महारानी के महल के सामने एक लाठी को केवड़े का विदू.-विचक्षणा, कहो न क्या क्या हुआ ? पेड़ बना दिया, महारानी ने भी आज हिंडोलनर्तनी विच. -महाराज! स्नान कराया, वस्त्र चतुर्थी के पर्व से उन्हीं पत्तों से महादेव जी की पूजा की, पहिनाया, तिलक लगाया, आभूषण साजे और मनाकर HOMAR A कर्पूर मंजरी ४२९ करेगी?