पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४७५

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'मदन दहन दहकत हिए, हाथ धरयो नहिं जात । पाइहौं परी सो सुख मैंन के मरोरे मैं । करसों ससि की ओट के, बितवत सों नित रात ।। उर उर सरझाइहौं हिए सों हिए लाइहौं, मैं तो इतना ही कहे जाती हूँ बाकी सब कपिजल अलाइहौं कबैंधों प्रानप्यारी हिंडोरे मैं ।।२।। कहेगा। रहसि रहसि हसि हसि के हिंडोरे चढ़ीं, (जाती है) लेत खरी पेंगे छबि छाजै उसकन मैं । TIVIT कहो मित्र और कौन काम है? उड़त दुकूल उघरत भुज मूल बढ़ी, विद.

-आज हिंडोल चतुर्थी के दिन रानी और

सुखमा अतूल केस फूलन खसन मैं ।। कर्पूरमंजरी झूला झूलने आईंगी और महाराज इसी बोझल वै देखि देखि मये अनिमेख लाल, केले के कुंज में छिपकर देखेंगे यही काम है । (कुछ रीझत विसूर श्रम सीकर मसन मैं । सोचकर) अहा ! महारानी बड़ी चतुर हैं तो भी हम ने ज्यौं, ज्यौं, लचि लचि लंक लचकत भावती की, कैसा छकाया, पुरानी बिल्ली को भी दूध के बदले मट्ठा त्यौं त्यौं पिज प्यायो गहै आगुरी दसन मैं ।।३।। पेलाया। फूलत पाट की डोरी गहे. राजा--मित्र तुम्हारे बिना और कौन हमारा पटुली पर बैठन ज्यों उकुरू की । काम ऐसा जी लगा के करै, समुद्र को चन्द्रमा के सिवाय देवजू दै मचकी कटि बाजत, और कौन बढ़ा सकता है। किंकिनि केहर गोल उरू की ।। (दोनों केले के कुंज में जाते हैं) सीखन के विपरीत मनों विदू.-मित्र इन ऊँचे चबूतरे पर बैठो । ऋतु पावस ही चटसार सुरू की । राजा अच्छा । खोंटी पटें उचटै तिय चोंटी (दोनों बैठते हैं) चमोटी लगै मानों काम गुरू की ।। विदू.- कहो पूर्णिमा का चन्द्र दिखाई पड़ा (एक भूलति ना वह मूलनि बाल की, ओर हाथ से दिखाता है)? फूलनि भाल की लाल पटी की । राजा-(देखकर के) अहा ! यह तो सचमुच देव कहै लटके कटि चंचल प्यारी का मुखचन्द्र दिखाई पड़ा । चोली दृगंचल चाल नटी की ।। गयो जगत रमनी गरब, परयो मन्द नभ चन्द । अंचल की फहरान हिये, सकुचि कमल जल में दुरे, भई कुमुद छबिमन्द ।। रहि जान पयोधर पीन तटी की। मूलनि मैं किकिन वजन, अंचल पट फहरान । किंकिनि की झमकानि मुलावनी, को जोहत मोहत नहीं, प्यारी छवि इहि आन ।। झूकनि मुकि जानि कटी की ।।५।। विदू.-

- आप सूत्रधार थे इस से आप ने बहुत राजा- हाय हाय ! कर्पूरमंजरी मूले से क्यों

योड़े में कहा, हम भाष्यकार हैं इससे हम विस्तार उतरी ? झूल क्या खाली हुआ, हमारे मन के साथ पूर्वक कहते हैं। देखनेवालों के नेत्र भी खाली हुए। फूली फूलबेली सी नवेली अलबेली वधू, वितु. - क्या बिजली की भांति चमक कर छिप फूलत अकेली काम केली सी बदति है। गई। कहै पद्माकर झमकी की झकोरन सों, -नहीं, बरन छलावे की भांति दिखाई चारों ओर सोर किकिनीन को कढ़ति है। पड़ी और फिर अन्तर्धान हो गई । उर उनकाई मचकीन को मचामच सो, (स्मरण कर के) लंकहि लचाय चाय चौगुनी चढ़ति है । गोरी सो रंग उमंग भर्यो चित, रति बिपरीत को पुनीत परिपाटी सुतो, अंग अनंग को मंत्र जगाए ।। हौंसनि हिंझेरे की सुपाटी मैं पढ़ति है ।।१।। काजर रेख खुभी दुग छाइहो मलारे और जमाइहों हिये में छथि, मोहन काम कमान चढ़ाए ।। छाइहौं छिगुनि कुंज कुंबही के कोरे मैं । आवनि बोलनि डोलनी ताकी, कहै पद्माकर पियाइहों पियाला मुख, चढ़ी चित में अति चोप बहाए । मुख सों मिलाइसौं सुगंध के झकोरे मैं ।। सुन्दर रूप सो नैनन में बस्यो, नेह सरसाइह सिखाइहौ जो सासन मैं. भूलत नाहिने क्यों हूँ भुलाए ।। OEM कर्पूर मंजरी ४३१ में दोउ.