पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४७६

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विदू.- मित्र, यही पन्ने का कुंज है, यहाँ बैठ के विच.- छोड़ो छोड़ो! रानी की आज्ञानुसार आप आसरा देखिए, अब सांझ भी हुआ चाहती है। कर्पूरमञ्जरी आती होगी। (दोनों बैठते हैं) विच.- रानी जी की क्या आज्ञा है ? राजा-मित्र, अब तो उस का बिरह बहुत ही विच.-महारानी ने तीन पेड़ लगाये हैं ? तपाता है। विदू.-किस के ? विदू.- तो हमारा लाठी पकड़े दम भर बैठे रहो विच.- कुरवक, तिलक और अशोक के । तब तक ठण्डाई की तयारी लावें। वितु. -फिर? (कुछ आगे बढ़कर) वाह ! क्या विचक्षणा यहीं आती विच.- महारानी ने कहा कि सुन्दर स्त्रियों के है? आलिंगन से कुरवक, देखने से तिलक और पैर के छूने राजा-ज्यों ज्यौं संकेत का समय पास आता है, से अशोक फूलता है, इस से तुम जाकर मेरे कहे त्यौं त्यौ उत्कण्ठा कैसी बढ़ती जाती है.! अनुसार सब काम अभी करो, सो वह आती होंगी। (लम्बी सांस लेकर) विदू. •- तो पन्ने के कुंज से प्यारे मित्र को ससि सभ मुख दृग कुमुद से, कर पद कमल समान । लाकर इन तमालों की आड़ में बैठावें । चम्पा सो तन तदपि वह, दाहत मोहि सुजान । (राजा को लाकर तमाल के पास बैठाता है) विदू.- अहा ! विचक्षणा तो ठण्ढाई लिए ही विदू.-मित्र सावधान होकर अपने मन रूपी आती है। समुद्र के चन्द्रमा को देखो। (विचक्षणा आती है।) राजा-(देखता है) विच.-अहा ! प्यारी सखी को बिरह का ताप (सजी सजाई कर्पूरमंजरी आती है) कैसा सता रहा है। कर्पूर. -कहां से विचक्षणा ? विदू.- (पास जाकर) यह क्या है ? विच.- (पास जाकर) सखी, रानी की आज्ञा विच.-ठण्ढाई। पूरी करो। विदू.-किस के लिए? राजा-मित्र, कौनसी आज्ञा ? विच.- प्यारी सखी के वास्ते । विदू. .- घबराओ मत, चुपचाप बैठे बैठे देखा - तो आधी हम को दो । विच.-क्यों ? विच.- यह कुरवक का पेड़ है .-महाराज के वास्ते । कर्पूर.- (आलिंगन करती है) विच.- कारण ? राजा- विदू.- "कर्पूरमंजरी के वास्ते" कारण । करत अलिंगन ही अहो, कुरवक तरु इक साथ । विच. •- तुम क्या नहीं जानते महाराज का फूल्यो उमगि अनन्द सों, परसि पियारी हाथ ।। विदू.- ह.-मित्र, यह अद्भुत इन्द्रजाल देखो, विद. - तो तुम क्या नहीं जानती कर्पूरमंजरी | जिससे छोटा सा कुरवक का पेड़ कैसा एक साथ फूल का वियोग? उठा! सच है, दोहद के ऐसे ही विचित्र गुण होते (दोनों हंसते हैं) विच.-और सखी यह तिलक का पेड़ है। विच.-तो महाराज कहां है ? कर्पूर.- (देर तक उसी की ओर देखती है) विवू.- तुम्हारी आज्ञानुसार पन्ने के कुंज में । राजा- विच.- तो तुम भी वहां जाके बैठो ! दम भर में अहा, काजर मीनी काम निधि दीठि तिरीछी पाय । ठण्ढाई के बदले दोनों को दर्शन ही से तरावट पहुच | भर्यो मंजरिन तिलक तरु, मनहु रोम उलहाय ।। विच.-सखी, अब इस अशोक की पारी है। विदू.- तो वहां जाओ जहां से फिर न बहुरो । कपूर.- (वृक्ष को लात मारती है ।) (विचक्षणा को ढकेलता है) विच,- (दोनों आपस में धक्का मुक्की करते हैं) नूपुर बाजत पद कमल, परसत पुरतः अशोक भारतेन्दु समग्र ४३२ विद्व. करो। 1 वियोग? जायगी।