पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४७९

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कपुर.- लाज से सिर नीचे कर लेती है) । दिसापघू चन्दन तिलक, नभ सरवर को डस। करगि.-सखी महाराज खड़े हैं और तू आदर | काम कंद सम नभ उदित, यह सास जगत प्रसस ।। करने को नहीं उठती? कुरं.- कर्पूर.-(उठा चाहती है। चंद उदय लखि के मदन, कानन को धनु तानि । राजा-बस बस. प्यारी, तुम अपने कोमल जीत्यो जग जुव जन सर्वे, निसि निज जति वल जानि ।। अंगों को क्यों दुख देती हो जहाँ की तहां बैठी रहो। (कर्पूरमंजरी से) सखी अव तेरा बनाया चन्द्रमा का कुन नितम्ब के भार सौ. लचि न जाय कटि छीन । वर्णन महाराज को सुनाती है। रहो रही. बैठी रहो, करौन आज नवीन ।। कर.- (लवा नाट्य करती है ।) धित.- हाय हाय ! कर्पूरमंजरी को बड़ा पसीना कुर.- हो रहा है। अच्छा, पखाको । (अपने दुपट्टे से पचा ससि अति सुन्दर ताहि कडू दुन्टि नाहि लगि जाय । | फलता हुआ जान बूझ कर दिया बुझा देता है। सातें देव कलंक मिस, दियौ विठोना लाय ।। हहहह ! बड़ा आनन्द हुआ । दिया गुल पगड़ी गायब । राजा- वाह वाह ! जैसा छंद वैसे ही बनाने | अब बड़ा आनन्द होगा । महाराज ! देखिए कुछ अन्धेर थाले । फिर क्या पूछना है. कोमल मुख से जो अर न हो। निकलेगे वाह क्यों न कोमल होंगे पर -- राजा- तो सब लोग छत्त पर चले, आओ प्यारी सिर दै कस्तूरी लिलक, सब विधि ससि छवि धारि । तुम हमारा हाथ पकड़ लो और अपनी मन्द चाल से | तुमहू तो मम मन कुमुद, विकसापति सुकुमारि ।। हसों को लगाओ (स्पर्श सुख नाट्य करके) अहा! (चन्द्रमा की ओर) तुम्हारे अंग से जाते ही कदम्ब की भांति हमारा अंग तजी गरब अब चन्द तुम, भूलो मत मन माहि । पुष्पित हो गया। क्रोध इसनि भूभग छथि, तुम मैं सपनेहु नाहि ।। (सब लोग चलना दिखाते है। (नेपथ्य में कोलाहल) (नेपथ्य में प्रथम बेताहिक) राजा- यह क्या कोलाहल है? नव ससि उदय होइ सुखदायक । कुमकुम मुस मण्डित क.म.- (भय से) कुरंगिके ! देखो तो यह क्या तिय मुख सम, देखाहू उग्यो जामिनीनायक । अरुन दिसा प्राची रग राची. तरुन करुन विरही जन धायक । (वरगिका आहर होकर आती है।) रजनी लखि सजनी अनंग अब, सजत किरिन मिस विद.- जान पड़ता है कि यह सब वात रानी ने सकि तकि सावक ।। पवरन्थ ते उनि अनि आवत चादनि रस सिंगार को वायक । तारागन प्रगटित नभ कुर.- हा ठीक है, महारानी हम रतोगों को मण्डल, ससि राजा के संग चनु पायक । बिहरत | पकड़ने यहां आती है वही कोलाहल है। तराति संजोगिन सो मिलि, लहि सब सुख रसिकन के क.-डर कर) तो हम लोग अब इस सुरंग की शायक । प्रफुलित कुमुद देखि सरवर मह, गावत कम राड से महल में जाते है जिसमें महारानी महाराज के बधाई गायक ।। साथ हमें न देखें। (नेपथ्य में चन्द्रमा का प्रकाश होता है) (सब जाना चाहते हैं । जपनिका गिरती है) वि.-कनकनन्द्र गा चुका अब माणिकचन्द्र इति कृतीय अंक गावै। निपथ्य में दूसरा वैतालिक गाता है) रैन संजोगिन को सुखदाई। चौथा अंक तपत मानिनी मान चन्द लखि, दती तिन कह चालत शिवाई ।। (राजा और वियक आते हैं।) कोमल सेज तमोल फूल मधु, राजा--अहा ! ग्रीष्म ऋतु भी कैसा भयानक सुखद साज सब घरे सजाई । होता है ! इस मृतु में दो यात अत्यन्त असत्य है- 'बिहरहि कामिनि कामी जन संग, एक तो दिन की प्रचण्ड धूप, दूसरे प्यारे मनुष्य का जूटहि मुख पीतम दिग पाई। वियोग । बिद.- विदू.-संसार दो प्रकार के मनष्य होते

कपूर मंजरी ४३५ जान ली।